कवितानज़्म
तुरबत में आख़िरत आ ही गए बस एक ही कफ़न ओढ़कर
कब्र में होनेको दफ़्न बशर अपने कपड़े की दूकान छोड़कर
अहबाब सब रवाना हुए तन्हाई में तुझको श्मशान छोड़कर
रूह भी रुख़सत हुई तिरे फ़ानी ज़िस्म का मकान छोड़ कर
रिस्ते नाते थे तमाम राब्ते बहोत अहम जिंदगीभर के वास्ते
हुए रास्ते जुदा रस्म मौत की भी निभाई सार बंधन तोड़कर
© डॉ. एन. आर. कस्वाँ "बशर" २०/१२२०२३