कवितानज़्म
इक दूजेके सहारा न हुए
मरसिम बहुत हुए लेकिन गवारा न हुए
बाहमी ताल्लुक़ात टूटे तो दुबारा न हुए
रिश्तों की कश्ती में इतने सुराख हुए कि
डूबते ही गए मग़र 'बशर' किनारा न हुए
समय की धारा में बहकर दूर निकल आए
डूबना था गवारा इक दूजेके सहारा न हुए
©️ डॉ.एन.आर. कस्वाँ "बशर" ०६/१२/२०२३