कवितानज़्म
मरहले ना मकान बन सके सफ़र फिर हरबार होता
अपनी भी मंज़िल होती तो अपना भी घरबार होता
पैरों के तले ज़मीं होती और सर पर आस्मान होता
हर मुफ़लिस अपने -अपने हिस्से का हकदार होता
कलम अपनी होती सोच और ख़्याल अपना होता
अपनीभी कहानी होती तो अपनाभी किरदार होता
दुनिया मुसाफ़िरखाना मुसाफ़िर आया हुआ रवाना
जीकर भी देख लेते जिंदगी तेरा अगर ऐतबार होता
लम्हात चंद जीने की ख़ातिर मरना हज़ार बार होता
मरनाभी था हमको गवारा अगर बशर एकबार होता
©️ डॉ.एन.आर. कस्वाँ "बशर" ०४/१२/२०२३