कविताअतुकांत कविता
खामोश हैं घर की दिवारे
बस हवा एक आजाद
तन्हा हूं याद में आज
मुझमें उमड़ रही अंगड़ाई
पूंछ लो हवा से
काया में तन्हाई उतर आई
बस हवा का है कसूर
बारिश से मिलकर चली आई
उनकी बाहों में बीते लम्हों का
एहसास कराने को
वक्त गुजर रहा है तन्हा होकर
तन्हाइयों में
याद कर बैठे हम उनको
जिनसे मिलने की आशा ना कोई
ये बारिश, ये हवा आ जाती है
सताने को
और यूहीं नही रूकता सफर तन्हाई का
छू लेता है आंखों का पानी
कोमल से गालों को
मुझ जैसे तन्हा होकर
कितनो ने उम्र गुजारी है
फिर भी तारों में तन्हा चांद है
एक वक्त छलनी से देखा जाता है चांद
वहीं रंग, रूप
एक पल वो मुझे भी देखें
तन्हाई में जलता रूप
कवि - रिंकु बुमरा