कवितानज़्म
रंग मेरे अब गिरगिट की तरह बदलते हैं
जमाने से मैं जरा डरा हुआ हूँ !
जज़्बात मिरे मौसम की तरह बदलते हैं
मैं इन्सान कुछ सिर फिरा हुआ हूँ !
ऐतबार मिरा तुम सोच समझकर करना
शख़्स मैं बशर बहुत गिरा हुआ हूँ !
चलती सांसें देख कर गुमराह ना होना
दर'असल आदमी मैं मरा हुआ हूँ !
© डॉ.एन.आर. कस्वाँ "बशर"
सरी, कनाडा/२१/११/२०२३