कवितानज़्म
जब से छोड़ कर सब को
अकेले इधर आना हुआ!
पुराना हमारा बहुत अब
दर्दे-दिल का फ़साना हुआ!
यूं लगने लगा है जैसे कि
घर छोड़े हुए जमाना हुआ!
जाने किस घड़ी पा निकले
लौट के फिरना आना हुआ!
दिल लगे ना दिमाग लगे
बेदिलीसे दिललगाना हुआ!
अहबाब से नहीं मुलाक़ात
हाल-चाल भी ना बताना हुआ!
जज़्ब हैं सब जज़्बात बशर
कब तलक यूं छुपाना हुआ!
विसाले अहबाब से जियादा
ज़रूरी राब्ते निभाना हुआ!
© डॉ.एन.आर. कस्वाँ "बशर"
सरी, कनाडा/२१/११/२०२३