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बचपन का घर - Kaustubh Tirpude (Sahitya Arpan)

कविताअतुकांत कविता

बचपन का घर

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  • 8 Min Read

याद हैं मुझे
याद हैं मुझे
वो बचपन का घर
इक संकरी-सी गली
दो सीढ़ीयां
उस पर एक पतरे का दरवाज़ा
पीले रंग का
दो कमरे
किराये का मकान
लेकिन अपना-सा

यह दुनियाँ बहुत बड़ी थी
और मैं बहुत छोटा
जहाँ तक नज़रें जाती थी
खेत ही खेत थे
हर सुबह वहाँ से
मोरों की कुहकने की
आवाज़ें आती थी
मैंने कभी सुनी तो नहीं
पर माँ हर रोज़ बताती थी

मेरे कई दोस्त थे
हम दिन भर खेला करते
उन में से एक
मेरा ख़ासम-ख़ास दोस्त था
अब उसका नाम मुझे याद नहीं
बस शक्ल याद हैं
कभी-कभी सोचता हूँ की
उसका क्या हुआ होगा?

गर्मियों की शाम
सूरज ढ़लते समय
बहती हवाओं की
मिठी-सी ख़ुशबू में
आँखों को मूंद कर
छत पर बैठने में
उसकी गुनगुनी फ़र्श पर
नंगे पाँव चलने में
एक अजब-सा सुकून था

बग़ल के आप्पा ने
न जाने कितनी कहानियाँ
सुनाई होगी मुझे
पड़ोस की माई
हर रात मेरे लिए
खिचड़ी बनाती थी
आज भी उन कहानियों की आवाज़
मेरे कानों में हैं
आज भी उस खिचड़ी का स्वाद
मेरी ज़ुबान पर हैं
वैसी खिचड़ी
आजकल नहीं बनती

कभी-कभी पापा
गोद में पकड़ कर
कच्ची सड़कों पर पैदल
राशन की दुकान ले जाया करते थे
वहीं सड़क के किनारे
एक अकेला घर हुआ करता था
उस घर की खिड़कियों पर
मोर बने थे
लौटते समय अंधेरे में
मोर डायनसौर बन जाते थे
मैं बहुत छोटा था
और यह दुनियाँ बहुत बड़ी

कुछ दिनों पहले
वापिस उसी गाँव गया था
अभी वहाँ घर ही घर हैं
पक्की सड़कें बन चुकी हैं
पर कुछ ही दूरी पर
आज भी
वह घर मौजूद हैं
वहीं संकरी-सी गली
दो सीढ़ीयां
उस पर एक पतरे का दरवाज़ा
पीले रंग का
दो कमरे
लेकिन आज उनमें
सिर्फ़ यादें रहती हैं
सिर्फ़ यादें रहती हैं

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