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कवितानज़्म
*अहबाब* अहबाब अपने समझे थे जिन्हें बशर हम सदा सोचे समझे बग़ैर वक़्त-ए-ज़रुरत मग़र आजमाया तो निकले सारे पराये और गैर डॉ.एन.आर.कस्वाँ "बशर"\१२\११\२३