कवितानज़्म
*कलम दवात के सहारे हैं*
क़िस्मत के मारे न वक़्त के मारे हैं
जीनेकी जुस्तजूमें हयात से हारे है!
विसाले-हबीब नहीं मयस्सरतो क्या
साथ चंद यांदों के दिन गुजारे हैं!
मरासिम पुराने भुलाए भी तो कैसे
बचेहुए यहीतो अहसासात हमारे हैं!
विसाले -हबीब हो फ़िराक़े -यार हो
राब्ते हमारे दरिया के दो किनारे हैं!
लफ़्ज़ों से लबरेज नदीहै हमहैं और
कागज, कलम, दवात के सहारे हैं!
डॉ.एन.आर.कस्वाँ "बशर"
०४/११/२०२३