कवितादोहा
।। यथार्थ ।।
समाज के समस्त प्रबुद्ध वर्ग को मैं यह संदेश देना चाहता हूं कि मेरी रचनाएं भौतिक संसाधनों से नहीं अपितु अंतर्मुखी और मात्र मन से ही प्रकट हुई हैं ।
जहां कलम रखना भी गुनाह की श्रेणी में आता हो , वहां अधिकारियों का इतना सहयोग मिला।
मुझे स्वयं नहीं पता कि उस अंधेरे में वह कौन सी शक्ति थी जो इस ओर खींच रही थी।
मन के सिवाय ना ही कोई साथी था और ना ही सहारा ।
अर्थात् भगवत्कृपा ही हो सकती है ।
दोहे
बुद्धिमान जो काल से , बाहर है हो जात ।
जीव अंश परमात्मा, उसमे ही मिल जात ।।
ब्रहम शक्ति अव्यक्त से प्रगटै सकल जहान ।
पुनि ताही में लीन हो , गीता मिलत-प्रमान ।।
वृहमा दिन पैदा भए , वृहम रात्रि मे लीन ।
जिमि तरंग सागर उठे , सागर में ही लीन ।।
धान्य बीज है जिस तरह अपने मे अव्यक्त ।
धरनी में पड़ जाने से, वह होता है व्यक्त ।।
है शरीर यदि व्यक्त तो मन अव्यक्त प्रमान ।
है अव्यक्त से विलग यह, आत्म रूप को जान ।।
ना ही जनमै ना मरै , ना ही प्रकट जो होत ।
ना ही बिगडै़ ना बने, ब्रहम शक्ति वह जोत ।।
क्यों जीते हैं नहि पता, क्यों मरते नहिं भान ।
जीते जी क्यूं मर रहे, रज्जन अब पहचान ।।
रज्जन सरल विरचित