कविताअतुकांत कविता
क्षितिज जाने
कितनी दूर है उसकी जमीं
कितना करीब है उसका आसमां
नदी पहचाने
राग धाराओं का
कैसे ठिठक ठिठक कर शोर करना
प्रभा की सूक्ष्म रेखाओं का
अंबर में बिखर यों
ज्योति पुंज सा प्रखर हो आशातीत होना
उच्च्छ्वास में घुलती प्रवात
रोम रोम आह्लादित करती
कभी मंद , तो कभी यों उसका वेगवान
आना जाना
प्रकृत हैं सभी
कृत्रिमता का लेस नहीं
यही तो जीवंतता है
यहां हर एक का अपना
किरदार नया
अंदाज़ नया
इससे नायाब रूप नहीं
इससे उजले प्रतीक नहीं
इससे उजले प्रतीक नहीं......!!
सोभित ठाकरे