कवितानज़्म
*कमी आशियाँ की रही*
तेरे जहाँ में आकर भी कमी इक मुकम्मल जहाँ की रही,
जमीन पर आकर कमी मुफ़लिस को इक मकाँ की रही!
गुबार-ए-रहगुज़र में बसते उजड़ते रहे उम्रभर घर उसके,
सर पर छत मुफ़लिसों को सिर्फ़ खुले आसमाँ की रही!
मुसलसल वक़्त आता रहा मुसलसल वक़्त जाता रहा,
कमी हरवक़्त मग़र साथ चलनेवाले इक कारवां की रही!
आने को तो यहाँ पर लोग आते रहे और लोग जाते रहे ,
कोई निशानी नहीं उन के आने - जाने के निशाँ की रही!
रास्तों पर पले, रास्तों पर चले, वक़्त के साथ -साथ ढले,
बारिशों में गले तपिश में जले कमी सरपर छाया की रही!
अंधों की बस्ती भी तो नहीं, गूंगों का येह शहर भी नहीं,
कुछ कहने को हर-सू कूबकू कमी इक हमजुबाँ की रही!
रौनक रहे रौशनाई रहे आबाद रहे सदा शाद रहे ये शहर,
बेशक बेसबब बेजह बशरको कमीमग़र आशियाँकी रही!
डॉ.एन.आर. कस्वाँ "बशर"
१८/१०/२०२३/सरी