कवितानज़्म
*जग से नहीं हौड़ बशर*
मुझे जगसे नहीं कोई हौड़ बशर
मिरी तुझ तक है बस दौड बशर
है तू ही तो बस इक हबीब मेरा
मुझे मझधार बीच न छोड़ बशर
हयाते - मुस्तार का तब्सिरा क्या
सौ बातोंका तू एक निचोड़ बशर
फ़ानी दुनिया सारी आनीजानी है
बस इक तू नाता ना तोड़ बशर
इक तिरे से है दुनियादारी अपनी
जगकी सौ बातोंका तू जोड़ बशर
मरहले हैं ना मंज़िल कोई अपनी
इक तेरेसिवा मेरी नहीं ठौड़ बशर
©डॉ.एन.आर.कस्वाँ "बशर"
१६/१०/२०२३/सरी