कवितानज़्म
*खुद का चश्मा लगाकर देखा*
नज़दीक के चश्में से न दिए दिखाई तो
हम ने फिर दूर का चश्मा लगा कर देखा,
हबीब मिरे दिखे नहीं नज़र के चश्मे से
हमने फिर धूप का चश्मा लगा कर देखा!
आगे जा कर देखा पीछे आ कर देखा
इसका लगाके देखा उसका लगाकर देखा!
गैरों के चश्मे से न आए नज़र आखिर
हमने अपना खुद का चश्मा लगाकर देखा!
©डॉ.एन.आर. कस्वाँ "बशर"
१५/१०/२०२३/सरी