कविताभजन
"रावण - अंगद संवाद"
प्रभु राम की आज्ञा पाकर अंगद लंका में उड़ते हुए जावें।
प्रभु राम की आज्ञा सुनाने अंगद लंकेश्वर को ढूंढते हुए आवें।।
रावण सभा में पहुंचे अंगद फिर जय जय राम की हुंकार लगावें।
सोच समझकर सबको देखकर रावण सभा में राम का संदेश सुनावें।।
वानर को देख सभा में राक्षस सारे मद में मुस्कावें।
वानर जिसके साथी ऐसे राम को असहाय मानकर सब उनका मजाक उड़ावें।।
राम नाम का लेकर आसरा अंगद निडरता से बोले जावें।
ऐसी निडरता देखकर रावण उनका परिचय जानने को आतुर हो आवें।।
रावण का मद टूटे अंगद बुद्धि से अपना परिचय सुनावेँ।
रावण को भुजाओं में दबाकर जिसने पूजा की ऐसे वानर राज बाली का स्वयं को पुत्र बतावें।।
इतना सुनते ही रावण बाली से मित्रता की संधि सुनावें।
पुरानी मैत्री का उलहाना देकर अंगद को अपने दल में मिलाना चाहें।।
क्यों करता है पितृ हंता राम की सेवा रावण ऐसी कलह मचावे।
मुझसे मिलजा राम को मारदे ऐसी अंगद को चाल सिखावे।।
पिता हत्यारे से प्रेम तूं क्यों करता है,हर क्षण उसकी सेवा क्यों करता है।
इतना बलशाली होकर वनवासी राम की सुनता, तूं क्या राम से इतना डरता है।।
बार बार अंगद को रावण भड़काना चाहे,राम विरोधी रामदास अंगद को रावण बनाना चाहे।
पितृ हत्यारे को क्यों पूजे,इस राज को ही वो जानना चाहे।।
अंगद विनम्रता से फिर अपना उतर सुनावें।
राम को त्रिभुवन पति और रावण को एक मूर्ख बतावें।।
फिर राम शरणागति का लाभ सुनावें।
पितृ हत्यारे को क्यों पूजूं इसका सभा में रहस्य बतावें।।
राम त्रिलोकनाथ है,राम न्याय के साथ हैं,रावण को समझावें।
श्री हरी चरणों की सेवा करना अंतिम पितृ आज्ञा है सबको बतलावें।।
इतना सुनकर रावण को गुस्सा चढ़ आवे,गुस्से में रावण चिल्ला चिल्लाकर आदेश लगावे।
मैं ही वीर हूं,क्षमाशील हूं,दूत हो तुम मर्यादा में रहो तुम।।
लंका में आए हो तो,लंकेश्वर से भयभीत रहो तुम।।।
राम को त्रिलोक नाथ बताते हो,उसके ही तुम गुण गाते हो।
राम तो बस वन का वासी है,उसे क्यों महान बताते हो,वो तो केवल एक सन्यासी है।।
मेरी भुजाओं में तो इतना बल है, कैलाश उठा दू,सारे ग्रह हिला दू,
देवताओं के भी मैं शीश झुका दू।
राम में कहां वो बात है,पत्नी के लिए वन में रोता फिरता,वो कहां इतना खास है।।
सोने की है लंका मेरी, सारा जगत जानता ऐसी शूरवीरता मेरी।
त्रिलोक में डरते सब देवता मुझसे,राम का इतना कहीं मान कहां।।
राम तो केवल एक मानव है,उसमे वीरता मेरे समान कहां।।।
इसपर फिर अंगद बोले,राम सबके स्वामी हैं,राम ही सबसे ज्ञानी हैं,
राम ही लक्ष्मी कंता हैं,राम ही दुखहर्ता हैं,राम सर्वव्यापी हैं,राम अविनाशी हैं,राम ही जगत के आधार हैं,राम ही हमारे तारणहार हैं,
राम करुणा निधान हैं,सब बोलें जयकार राम की,तूं भी शरण में आजा राम की।
राम माता सीता को लेने आए हैं,डर रावण स्वयं भगवान तुझे दंड देने आए हैं।।
अब भी हठ छोड़ दे रावण,राम के चरण पकड़ ले रावण।
वासना ने हरली है बुद्धि तेरी,पाप के ये बंधन तोड़ दे रावण,अब भी हठ छोड़ दे रावण।।
अपनी शक्ति पर ना कर अभिमान रावण।
राम नाम की शक्ति आगे तू है निर्बल बालक के समान रावण।।
राम नाम लेकर धरती पर जमा लूं पैर।
उसे उठा दे इतना तुम में कोई बलशाली है क्या रावण,एक एक करके सारी सभा आजमा कर पता करलो,श्री राम का केवल नाम ही है तुमसे अधिक शक्तिशाली रावण।।
एक एक करके सबने जोर लगा लिया।
उनका अहंकार तोड़कर बोले अंगद,क्या कैलाश उठाने जितना बल भी लगा लिया।।
राम नाम की बोले महिमा देख रावण।
वनवासी के दूत अंगद से ही हारे खड़े तेरे योद्धा अनेक देख रावण।।
तेरी बुद्धि अब भी नही चलती तो,तेरा विनाश तय है रावण।
तेरी ही आंखें क्यों मूंदी हैं,तेरे योद्धाओं में तो फैला भय है रावण।।
अपनी मृत्यु का अब करना इंतजार रावण,इतना कहकर अब मैं जाता हूं।
तूने राम की दया को नही स्वीकारा,अब देख मैं कुपित राम को लेकर आता हूं।।
"विजयदशमी को समर्पित एक स्वरचित कविता"
-हेमंत।