कवितानज़्म
*क्या बताएं बशर किसीको*
मसर्रत होती नहीं है मयस्सर हर किसी को
घर में रहकर भी मिलता नहीं घर किसी को!
उफ़क के उस पार भी मिल जाती है मंज़िल
चलनेको नज़र आती नहीं रहगुज़र किसी को!
गर्दो -ग़ुबार उड़ा कर निकल जाता है कारवां
बीचराह निगल जातीहै सर्पिल डगर किसीको!
जमीन मिलती है तो आसमान छूट जाता है
पहचान मिलती नहींहै मुकम्मल इधर किसीको!
सूरते-हाल गुम चेहरे बयां करते है जमाने की
अपनी जुबाँ से हम क्या बताएं बशर किसीको!
डॉ.एन.आर.कस्वाँ "बशर"
२०२३/१०/०८
मसर्रत = खुशी, मयस्सर = हासिल
उफ़क = क्षितिज, रहगुज़र = रास्ता
मुकम्मल = परिपूर्ण