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श्रद्धापूर्वक श्राद्ध - Om Prakash Narang (Sahitya Arpan)

लेखनिबन्ध

श्रद्धापूर्वक श्राद्ध

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श्रद्धापूर्वक श्राद्ध

हिंदू धर्म में अधिकतर संस्कार हमें अपने पूर्वजो से अनुवांशिक और पारिवारिक धरोहर के रूप में मिलते हैं। इनमें कृतज्ञता की भावना प्रमुख हैं, जो कि बालको में अपने माता-पिता और पूर्वजो से अनायास ही मिलती हैं। हिंदू धर्म और सनातन धर्म के अनुयायी अपने जीवित माता-पिता और परिवार के अन्य बुजुर्गो की सेवा तो ह्रदय से करता ही हैं, उनके देहावसान के बाद भी उनके कल्याण की भावना भी करता हैं। उनकी तृप्ति हेतु श्रद्धा से उनके आधे-अधूरे शुभ कार्यों को संपन्न करने का प्रयत्न और अपनी क्षमतानुसार प्रयास भी करता हैं। परहित की भावना और विश्वास को श्रद्धा कहा जाता हैं। श्रद्धा और मंत्र के मेल से जो विधि बनती हैं, उसे श्राद्ध कहते हैं।

सनातन और हिंदू धर्म की मान्यता अनुसार मृत्युपश्चात जीवात्मा को मृत्युलोक में किये गये अपने कर्मानुसार स्वर्ग-नर्क में उचित स्थान मिलता हैं। पुण्य क्षीण होने पर उसे पूर्व जन्मो के कर्मानुसार मृत्युलोक में उपलब्ध चौरासी लाख योनियों में फ़िर से किसी एक में वापस लौटना पड़ता हैं। जब तक दूसरा जन्म नहीं मिलता तब तक उन्हे पितृ बनकर पितृलोक में ही भटकना पड़ता हैं। इसलिए भारतीय सनातन संस्कृति में अश्विन मास की कृष्ण पक्ष में पितृ-तृप्ति हेतु श्राद्ध करने का बहुत ही सुंदर विधान बनाया गया हैं। इसलिए वंशज को अपने पितृ-तृप्ति हेतु श्राद्ध पक्ष में विधि-विधान द्वारा समुचित जल व आहार अर्पण करना चाहिए। इसके लिये श्राद्ध और पिंडदान की भी व्यवस्था की गई हैं।

आजकल पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित कुछ लोग तर्क-वितर्क करते हैं कि श्राद्ध में पितृ के लिये किया गया दान व जल तर्पण उन तक कैसे पहुँचता हैं? जैसे हम अमेरिका या लंदन में बैठे अपने किसी परिचित को मनीऑर्डर द्वारा पैसे भेजने के लिये यहाँ के पोस्ट ऑफिस में भारतीय रुपया जमा करवाते हैं, लेकिन उन्हें वहाँ पर उस देश की करेंसी के अनुरूप डॉलर या पाउंड के रूप में मिलता हैं। मानव निर्मित सृष्टि में यंत्रो की व्यवस्था अनुसार जब यहाँ का रुपया वहाँ के डॉलर या पाउंड में परिवर्तित हो कर मिल सकता हैं, तो हमारे सनातन संस्कृति द्वारा मंत्रो के माध्यम से पित्रो के निमित्त तर्पण किया हुआ जल और दान किया हुआ खाद्यान्न हमारे पितृ को उनके अवश्यक्ता अनुरूप मिल जाये तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिये। सर्वसमर्थ ईश्वर की बनाई गई सृष्टि की अदभुत व्यवस्था पर किसी प्रकार की शंका या संदेह नहीं करना चाहिए।

श्राद्ध कब करना चाहिए; जिस दिन परिवार को कोई भी सदस्य अपना जीवन यात्रा समाप्त कर अपने स्थूल शरीर का परित्याग कर शुक्ष्म शरीर धारण कर परलोक के लिए गमन करता हैं, उस तिथि को उसका श्राद्ध करने का विधान हैं। अगर किसी जीवात्मा का निधन प्रथम तिथि को हुआ तो उसका श्राद्ध आश्विन मास की शुक्ल पक्ष की प्रथमा को किया जाता हैं। जिसका निधन चतुर्थी को हुआ तो उसका श्राद्ध चतुर्थी को होगा। जिन पूर्वजो के निर्वाण तिथि का सटीक ज्ञान नहीं हैं, तो उनका श्राद्ध सर्वपितृ अमावस्या को करने का विधान बताया गया हैं। इसलिए सर्वपितृ अमावस्या को महालय श्राद्ध भी कहा जाता हैं। इस वर्ष 14 अक्टूबर को महालय श्राद्ध हैं।

श्राद्ध के दिन प्रश्नचित व शांतचित्त होकर, श्रद्धापूर्वक किसी सम्मानित विप्र को घर पर आमंत्रित करें। उनके चरण धोकर, ललाट पर तिलक कर अपने सभी पित्रो का आह्वान कर भावना करें कि मेरे सम्मुख विप्र के स्वरूप में मेरे सभी दिवांगत पूर्वज आसन पर विराजमान हैं। फ़िर विप्र को स्वादिष्ट भोजन करवाये जिसमें रोटी, चावल, फल, मीठा हलवा-खीर, लवणयुक्त सब्जी-भाजी, खट्टा-दही आदि सम्मिलित हो। श्राद्ध में तामसिक भोजन पूर्णतया निषेध हैं, जिनमे प्याज, लहसुन और गाजर शमिल हैं। जब तक ब्राह्मण भोजन करे तब तक सभी पूर्वजो की पितृ योनि से मुक्ति हेतु श्री मद्भागवद गीता के सप्तम अध्याय का पाठ अवश्य करना चाहिए। भोजन पश्चात ब्राह्मण को वस्त्र, जूता, छाता, बर्तन, मिष्ठान, फल, बिस्तर, चारपाई, दक्षिणा और कच्चा अनाज आदि दान करने का विधान शास्त्रो में बताया गया हैं। श्राद्ध में विशेष ध्यान रखना चाहिए कि दान की गई वस्तुएं अच्छी गुणवत्ता की होनी चाहिए, जिसे हम अपने लिये या माता-पिता और पूर्वजो को जीवित अवस्था मे प्रयोग के दिए देते।बहुत लोग दान की जाने वाली चीजें बिलकुल घटिया किस्म की खरीदते हैं ताकि थोड़े से पैसे बचाए जा सकें। हमें यह भी ध्यान
में रखना चाहिए कि हम उन पितृ के लिए वर्ष में एक बार दान करते हैं जिन्होंने अपना पूरा जीवन अपना पेट काट कर जमा अर्जित संपत्ति हमारी शिक्षा और लालन-पालन पर खर्च किया हैं। ताकि हम जीवन में कुछ बन सके और परिवार व वंश का नाम रोशन करे। यहां तक ​​कि उन्होंने परिवार व बच्चो पर खर्च करते समय अपने शौक़ व आवश्यक जरूरतो का बलिदान करने मे कभी संकोच नहीं किया।

ऐसी मान्यता हैं कि जिस प्रकार का हम दान करते हैं वही सब वस्तुये हमें पितृलोक में प्राप्त होती हैं।महाभारत युद्ध में दुर्योधन के विश्वासपात्र मित्र कर्ण अपनी दानवीरता के लिए विश्वप्रसिद्ध थे। अत्याधिक दान के कारण उसका पुण्य कई गुना बढ़ चुका था। जब वह पितृलोक में पहुँचा तो उसे स्वर्ण-रजत, भूमि आदि असांख्य वस्तुयें मिली, जिससे उसकी क्षुधातृप्ति नहीं हो सकी। क्योंकि उन्होंने ये सभी वस्तुएं मृत्युलोक में दान की थीं और अन्नदान को कभी प्रमुखता और उचित महत्व नहीं दिया था। कर्ण ने राजा यम से कष्ट निवारण हेतु प्रार्थना की फिर उन्हें 15 दिनों के लिए मृत्युलोक में वापिस भेजा गया। कर्ण ने मृत्युलोक मे आकर सर्वप्रथम् ऋषि-मुनियो को अन्न-भोजन से सेवा कर तृप्त किया और आशीर्वाद प्राप्त किया। इसके अलावा युद्ध में मारे गए अन्य सैनिको और पूर्वजों की मुक्ति हेतु श्राद्ध भी किया। वो समय आश्विन मास का शुक्ल पक्ष का श्राद्ध पक्ष था। जब वह पितृलोक वापस गये तो उन्हें आदरपूर्वक भोजन और अनाज भेंट किया गया जिससे उनकी क्षुधातृप्ति हो सकी।

वैसे श्राद्ध कई प्रकार के होते हैं लेकिन इनमे से प्रमुख हैं:-

नित्य श्राद्ध; पितृ के नाम पर सूर्यदेव को गायत्री मंत्र उच्चारण करते हुए प्रतिदिन जल तर्पण किया जाता हैं।

काम्य श्राद्ध; किसी कामना की पूर्ति हेतु श्राद्ध किया जाता हैं।

वृद्ध श्राद्ध; विवाह उत्सव और अन्य शुभ अवसरों से पहले पूर्वजो के आशीर्वाद की कामना की जाती हैं।

दैविक श्राद्ध; देवताओ को प्रसन्न किया जाता हैं।

ऐसी मान्यता है कि पितरों का एक दिन मृत्युलोक के एक वर्ष के बराबर होता हैं। इसलिए सभी पितृ भोजन और पानी की आशा में अपने वंशज के घर की चौखट पर श्राद्ध पक्ष मे अवश्य आते हैं। जब उन्हें तर्पण से जल और अन्न दान से भोजन मिल जाता हैं तो वे प्रसन्न होकर आशीर्वाद देकर वापस चले जाते हैं। यदि उन्हें उचित सम्मान, भोजन- पानी नहीं मिलता तो वे बगैर कोई आशीर्वाद दिए उदास मन से वापिस लौट जाते हैं।

इसलिए हर किसी को अपने पितृ की स्मृति में श्राद्ध पक्ष में हवन, जल तर्पण और अन्न दान श्रद्धापूर्वक अवश्य करना चाहिए। हालांकि पितृ शांति के लिए प्रतिदिन जल तर्पण करना ही चाहिए और पितरों के नाम की पहली रोटी गौमाता के लिए अवश्य निकालनी चाहिए। भोजन करने से पूर्व अपने तीन पीढ़ी के पूर्वजो के नाम का स्मरण करके ही भोजन ग्रहण करना चाहिए।
इससे पितृ भी प्रसन्न रहेंगे और आपको भी आत्मसंतुष्टि का आनंद प्राप्त होगा लेकिन खर्च कुछ भी नहीं।

माता-पिता और अन्य पूर्वजो की पुण्यतिथि या श्राद्ध पर हर समय ऑक्सीजन प्रदान करने वाले पौधे तुलसी, पीपल, वटवृक्ष या कोई अन्य पौधा अवश्य लगाना चाहिए। इसे प्रतिदिन पानी देकर देखभाल करनी चाहिए। इससे पर्यावरण, हरियाली का संतुलन सुनिश्चित होगा और मन को भी बेहद संतुष्टि मिलेगी। सदैव स्मरण रखना चाहिए कि खाया पिया अंग लगेगा! दान किया संग चलेगा! बाकी यही पड़ा जंग लगेगा!

धन्यवाद 🙏🌹🙏
ओम प्रकाश नारंग
बहादुरगढ़ (हरियाणा)

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