कवितानज़्म
*क्यूं कोसते हो अपने आज को*
धूल जमती रहतीहै सतत गुजरेहुए वक़्त पर
त्वचाभी आ जाती है आखिर रिसते रक्त पर!
भाग्य से ज्यादा वक़्त से पहले मिलता नहीं
जोर किसका चला है यहाँ समय सशक्त पर!
जुस्तजू आरजू चाहतें ख्वाहिशें धरी रहती हैं
विरक्ति हावी हो जाती है मनुष्य आसक्त पर!
क्यूं कोसते रहते हो बशर यूं अपने आज को
विगत भला कहला जाता है काल आगत पर!
©डॉ.एन.आर. कस्वाँ *बशर*
१५/१०/२०२३/सरी