कवितानज़्म
*दरीचों से देखते रह जाएंगे*
हम तो उनके शहर से निकल आएंगे
अपने दरीचों से वो देखते रह जाएंगें
हम नहीं कहीं पर नज़र उन्हें आएंगे
दरो-दीवारों को वोह देखते रह जाएंगे
राज-ए-उल्फ़त छुपाकर क्या हासिल
हम संभल पाएंगे न वो संभल पाएंगे
हमारे पलट कर देखने की जुस्तजू में
हमारे रास्तों को वोह देखते रह जाएंगे
बाट हमारी बशर हजार जलाकर दीये
दीयोंकी लौ को वोह देखते रह जाएंगे
©डॉ.एन.आर.कस्वाँ *बशर*