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याद नहीं वो पल मुझे... - sukant ranjan (Sahitya Arpan)

कवितालयबद्ध कविता

याद नहीं वो पल मुझे...

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०८. याद नहीं वे पल मुझे...

आज जब मैं पिता बन चुका हूँ... आज जब मेरे जिगर का टुकड़ा मेरे हाथों में है... आज जब मैं देख पा रहा हूँ कि मेरे बेटे का जीवन उसकी माँ से कितनी गहराई से जुड़ा हुआ है... एक कल्पना मेरे मन को अनायास ही घेरने लगी है कि कभी मैं भी तो अपनी माँ के इतना ही करीब था कि उनके होने पर ही मेरा भी होना था...

वे पल तो कोई याद नहीं कर सकता, मगर माता या पिता बनने पर एहसास कर सकता है...

माँ! याद नहीं वे पल मुझे...
जब तन तेरा मेरा डेरा था,
मन तेरा मेरा घेरा था,
उर में तेरे था मैं ही समाया,
माँ, जब मैं पूरा का पूरा तेरा था।

तेरी साँसे मेरी हो चली थी,
मेरी किलकारी तेरी धड़कन बनी थी।
मेरी रातें बनी थी तेरी रातें,
मेरा सवेरा तेरा सवेरा बना था।

माँ! याद नहीं वे पल मुझे...
जो तेरे लहू से मेरा लहू बना था,
तेरे तन से था मेरा भोजन,
तेरी गोद में मुझको जो नींद पड़ा था,
मेरा पूरा होना जब तुझसे ही जुड़ा था।

मैं कमजोर सा तेरी गोद में पड़ा था,
तेरी आँचल की छाँव में पला था,
मेरी आँखों में तब चमक तो होगी माँ,
तेरे चेहरे का जब तस्वीर बना था।

माँ! याद नहीं वे पल मुझे...
जो मेरी एक छींक पर जब तू दौड़े आती,
घर सर पर उठाती, तू इतना घबराती,
मेरे तन को लगे जो, तू वही थी खाती।
तेरी अपनी पसंद, तेरा अपना स्वाद,
बस मेरे वास्ते, तूने सब थी भूला दी।

मेरी छीछी-सुसु पे तेरा कहना,
आराम से कर ले, तुझे जितना करना।
तू अपनी माँ के पास है,
कैसी शर्म और कैसा डरना।

उठकर मैंने बैठना सीखा,
चलना सीखा, दौड़ना सीखा,
हाथ-पांव फेंक-फेंक कर,
खेलना-कूदना सीखा।

माँ! याद नहीं वे पल मुझे...
मेरे कोमल जीवन को,
जब तेरा सहारा मिला था।
तिनका सा बहा था,
तेरा किनारा मिला था।

जीवन दिया, जीवंतता दी,
जिगर दिया, जीवटता दी,
जीवन का हर सुर, हर ताल मिला,
मुझे तेरा पूरा संसार मिला।
तेरा पूरा-पूरा प्यार मिला।

माँ, मैं तेरा टुकड़ा, मैं तेरा प्राण,
मेरे रोम-रोम को तूने लाड़ा था,
मेरे रूप में, माँ तूने ही तो
एक नया जीवन धारा था।

मैं जो भी लिखूँ तेरे बारे में माँ,
मेरा लिखा तो सब तेरा है।
गर, तूने मुझे लिखा न होता,
इस दुनिया में कहाँ कुछ मेरा होता।

पर, धीरे-धीरे मैं तुझसे कुछ अलग होने लगता हूँ...

धीरे-धीरे मुझमें पूरा परिवार समाता है,
धीरे-धीरे मुझमें समाज भी आता-जाता है,
धीरे-धीरे समय मेरा दरवाजा खटखटाता है,
और, धीरे-धीरे तेरा साया सरकते जाता है।

धीरे-धीरे मुझे भी दुनिया की चाहत सताती है,
धीरे-धीरे मेरे अंदर वो अपना घर बनाती है।
धीरे-धीरे माँ तू पीछे हटते जाती है,
तू माँ है, तू तनिक भी न मुझपर जोर चलाती है।

धीरे-धीरे मैं तुझसे अलग कुछ और बनता जाता हूँ
तेरा ही तो टुकड़ा था, ये बिसराते जाता हूँ।
भूली तो तू कुछ न होगी, याद तुझे सब आता होगा,
मुझको ख़ुद से अलग देखना तुझे बड़ा तड़पाता होगा।

आज मुझमें तेरा जो बचा है,
उसे बचाना है माँ मुझको।
तेरी कोमलता, वो तेरा प्रेम,
उस गहन भाव में डूब जाना है मुझको।

मैं भी तुझसा कुछ जी पाऊँ,
उस प्रेम में पूरा हो जाऊँ,
त्याग मेरा धर्म बनें,
यज्ञ सा जीवन बनें।

हे प्रभु! तेरा जगत ये सुंदर कहाया है,
जो माँ-सा तन और माँ-सा हृदय-मन तूने बनाया है।
तृष्णा (तृ) जहाँ तिरोहित (मा) हो जाती है,
वो पूर्ण कृति मातृ कहलाती है।

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