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वार्ड नम्बर 17 - सुप्रिया सिंह (Sahitya Arpan)

कहानीसस्पेंस और थ्रिलर

वार्ड नम्बर 17

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वार्ड नं17भाग -2

पहले भाग में आपने पढ़ा कि एक मनोरोग विशेषज्ञ डॉक्टर अपनी नियुक्ति के लिए जा रही है । ट्रैन के कूपे में उसकी मुलाकात एक लड़की से होती हैं जिसके परिवार वाले उसको कहीं लेकर जा रहे हैं । वो लड़की डॉक्टर को सहमी हुई सी और कुछ विक्षिप्त सी लगी । बहुत कोशिश करने परभी वो उस लड़की से अपना ध्यान नहीं हटा पा रही थी । गन्तव्य आने पर वो दोनों अपनी मंजिल की तरफ चले जाते हैं ।

अब इसके आगे *****

आज मेरी पहली रात थी इस नए शहर में ,नया घर नया बिस्तर नींद आने में काफी मशक्कत करनी होगी ये सोचकर मैं अपनी बालकनी में आकर खड़ी हो गयी । सुना था कि ये शहर रात में भी दिन जितना ही गर्म रहता है ,सही भी था ।रात के दस बज रहे थे और अभी मार्च का महीना ही चल रहा था पर उफ्फ ये गर्मी ...मैं थोड़ी ही देर में पसीने से सराबोर हो गयी ।

शॉवर लेकर थोड़ी सी राहत मिली । बिस्तर पर लेटते ही वो लड़की फिर से मेरी आँखों के सामने घूम गयी । क्या करेंगे उसके परिवार वाले ? शायद किसी ओझा या झाड़- फूंक वाले को दिखाएंगे जो उसके मासूम मन के साथ फिर से खेलेगा। डॉक्टर होने के नाते उस पर इस वक्त क्या बीत रही होगी समझ सकती थी । पता नहीं कब लोग समझेंगे कि मन भी शरीर की तरह ही बीमार होता है । हम शरीर की चोटी से छोटी बीमारी के लिए डॉक्टर के पास चले जाते हैं पर इस मन को भी मलहम की जरूरत होती हैं किसी की समझ में नहीं आता ।

शरीर की तरह ही मन की भी विकास अबस्थायें होती हैं जिनका सुचारू रूप से चलना उतना ही जरूरी होता है जितना कि हमारा खाना -पीना या साँस लेना । जब हम इनमें से किसी भी अवस्था में औरो से पीछे छूट जाते हैं या यों कह लो कि हमारे मानसिक जीवन में कोई बाहरी आघात लगता है तो हम ठीक उसी तरह चोटिल होते है जैसे शरीर किसी दुर्घटना में चोटिल होता है पर मन के घाव दिखते नहीं है उन्हें समझना पड़ता है । उस बच्ची के घाव जल्दी से भर जाएं बस इतनी ही दुआ कर सकती थी ।

सोचते हुए आँख लग गयी ।

"अभी किचिन के नाम पर मेरे पास कुछ भी नहीं था । यूँ तो कैंटीन से खाना मिलता पर सुबह की शुरुआत करने के लिए चाय के साथ कुछ हल्का नाश्ता तो चाहिए । दैनिक क्रिया से फ़ारिग होकर बाहर निकली ही थी कि हॉस्पिटल के डीन सुशांत जी का फोन बजता हुआ पाया ।वो चाहते थे कि मैं आज का नाश्ता उनके साथ करूँ । थोड़ी सी औपचारिक बातचीत के बीच घर का बना हुआ सादा सा नाश्ता और उनकी पत्नी सुमन आंटी के व्यवहार ने मुझे इस अजनबी शहर में भी किसी अपने के होने का एहसास करा दिया ।

मेरे किचिन के समान की लिस्ट तैयार करने से लेकर मेरा दो दिन का खाना ....अब सुमन आंटी की समस्या थी ।

उन्होंने ये जिम्मेदारी मेरे बिना कहे ही उठा ली ।सच कहा है किसी ने कि कभी सालों साथ रहने पर भी रिश्ते नहीं बनते और कभी कोई अजनबी एक ही पल में अपने हो जाते हैं । मैं रिश्तों के मामले में बहुत अनलकी थी इसलिए अब किसी को अपना कहने में भी डर लगता था ।

दस बजे मैं अपने निर्धारित समय पर हॉस्पिटल पहुँच गयी । अपना दायित्व लेने से लेकर अपने काम को समझने में मुझे पूरा दिन लग गया । ये एक मानसिक रोगियों के लिए ही बना हुआ हॉस्पिटल था । मुझे मिलाकर कुल दस डॉक्टर और क़रीब पचास नर्सिंग स्टाफ और लगभग इतने ही अन्य कर्मचारी होंगे । जो वार्ड मुझे सौपा गया था वो था वार्ड नंबर सत्रह । बारह बेड जो केबिन में बंट कर हर मरीज को उनका व्यकिगत स्थान दे रहे थे । मनोरोग से पीड़ित इन रोगियों की अलग ही काल्पनिक दुनियाँ होती है जिसमें किसी भी बाहरी व्यक्ति का प्रवेश असम्भव होता है ।इनकी इस दुनियां का हिस्सा बनने के लिए मुझे पहले इनके साथ दोस्ती करनी होगी ।

मेरे अपने केबिन के सामने मेरे नाम की नेमप्लेट भी अब लग चुकी थी "डॉक्टर सुजाता श्री " दिन में दस से दो तक मेरे ओपीडी में बैठने का समय था । और बाकी का अपने वार्ड के मरीजों के नाम । मेरे जिंदगी के दस साल के कैरियर में ये मेरी पाँचवी पोस्टिंग थी । अब शायद मैं अपना कार्यकाल पूरा कर पाऊँगी अगर उसे इस जगह का पता नहीं चल चला .....उसकी याद आते ही मन फिर से कसैला हो गया । मेरी इस अभिशप्त जीवन का जीता जागता श्राप था वो ।अभी भी उसकी वो चींखें ....इसके आगे मुझसे सोचा नहीं गया । बोझिल मन से अपने वार्ड के मरीजों की फ़ाइल निकालकर मैं उनको पढ़ने की कोशिश करने लगी ।

"अधिकतर मरीज डिमेंशिया ,चिंता,ऑटिज्सिम , भ्रम डिस्लेक्सिया के थे । कुछ मरीज डिप्रेशन के भी थे पर वो ओपीडी विजिट तक सीमित थे । कितना कुछ होता है समझने के लिए पर कितनी आसानी से बोल दिया जाता है "पागल है "। फाईल देखते हुए मेरी नजऱ एक फाईल पर जा कर ठहर गयी । अनुराधा उम्र -15 साल । ये वो ही बच्ची थी जो मुझे ट्रैन में मिली थी । मेरा शक सही था वो बच्ची किसी मानसिक बीमारी से ग्रसित थी । मैं एक बात पर खुश थी कि अब मैं उसके लिए कुछ कर पाऊँगी । वो मेरे ही वार्ड की मरीज थी ।

अगर ये यहाँ भर्ती हैं तो कल परिवार के साथ कैसे ? मुझे इस बच्ची के बारे में सब जानना था । उसकी फाईल उठा कर मैं देखने लगी तभी मेरे सहयोगी डॉक्टर ने घर चलने की सूचना देते हुए घड़ी की तरफ इशारा किया । शाम के छह बजे थे और आज मेरा पहला दिन था ।इमरजेंसी में मेरी फिलहाल ड्यूटी नहीं थी तो मैं फ्री थी ।

कौन थी वो लड़की ?आखिर किस मनोरोग से ग्रसित थी ? डॉक्टर सुजाता क्यों उससे इतना जुड़ाव महसूस कर रही थी ? ये सब जानने के लिए पढ़िये इस कहानी का अगला भाग ।

क्रमशः ।

कॉपीराइट -सुप्रिया सिंह

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दादी की परी
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