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जख़्म-ए-जिगर को बशर मेरे हरा अभी कुछ रोज रहने दे - Dr. N. R. Kaswan (Sahitya Arpan)

कवितानज़्म

जख़्म-ए-जिगर को बशर मेरे हरा अभी कुछ रोज रहने दे

  • 58
  • 1 Min Read

जख़्म-ए -जिगर को बशर मिरे हरा अभी कुछ रोज रहने दे!
ये दर्द ही गर कहलाता है मुझसे चंद अश्आर और कहने दे!

©डॉ.एन.आर.कस्वाँ "बशर"

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