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सुकून-ए-ज़ीस्त मयस्सर ही नहीं कहीं आदमजात में - Dr. N. R. Kaswan (Sahitya Arpan)

कवितानज़्म

सुकून-ए-ज़ीस्त मयस्सर ही नहीं कहीं आदमजात में

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रहना चैनो -अमन से सीखा ही नहीं किसी हालात में,
हयात में अपने रहता है सदा इन्सान दुखी हर बात में!

बसर हो जाती है उम्र - ए -तमाम उसकी ख़्यालात में,
परेशाँ हक़ीक़त से कहीं ज्यादा रहता है तसव्वुरात में!

येह तो मुमकिन नहीं कि हासिल हर शय हो खैरात में,
फिजूल बेशक बनते फिरो अब्दुल्ला बेगानी बारात में!

बिसात है नहीं बशर उस की रहना अपनी औक़ात में,
सुकून-ए- ज़ीस्त मयस्सर ही नहीं कहीं आदमजात में!

डॉ.एन.आर.कस्वाँ "बशर"
१६\०८\२०२३

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