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समीक्षा - भुवनेश्वर चौरसिया भुनेश (Sahitya Arpan)

कहानीहास्य व्यंग्य

समीक्षा

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समीक्षा
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समीक्षक ने किसी कविता पर बहुत बड़ी समीक्षा लिखी। अखबार में प्रकाशित समीक्षा पढ़कर एक पाठक लेखक से मिलने आया।

उस समीक्षा में पूरी कविता नहीं थी तो पाठक ने पूरी कविता पढ़ने की अपनी इच्छा समीक्षक से जताई। कविता तो मेरे पास भी नहीं है लेकिन आइए बैठिए धन्य भाग प्रभु आप पधारे क्या नाम प्रभु आप तिहारे जी मैं पाठक हूॅं‌ और समीक्षा पढ़ना मुझे बहुत अच्छा लगता है लेखक ओह बहुत अच्छे।

तो आप कविता पढ़ते हैं पाठक जी तो जाहिर सी बात है आप समझते भी होंगे पाठक जी कविता पढ़ता भी हूं और समझता भी हूं पर…!
समीक्षक पर क्या?
सर मेरे घर पर जो कविता है वो मुझे कुछ भी नहीं समझती यहां तक कि पाठक भी नहीं।

समीक्षक जी कविता तो मुझे भी समझ नहीं आती पर जो भी विचार कविता पढ़ने के बाद मन में उत्पन्न होता है उसे अक्षरश: अपनी समीक्षा में बयान कर देता हूॅं‌।

पाठक आश्चर्यचकित होते हुए जी सर आपको कविता समझ नहीं आती तो इतनी बड़ी समीक्षा कैसे लिख दी। समीक्षक सब मां सरस्वती की कृपा।
पाठक यदि समझते तो समीक्षा और भी बड़ी होती ताजुब है।

समीक्षक भई ताजुब वाजुब कुछ नहीं है दरअसल एक कविता इधर भी है।
कविता जरा दो कप चाय लाना एक मेहमान आया है।
अंदर से करकस आवाज मेहमानों ने तो आ आ कर मेरा जीना हराम कर दिया है।

समीक्षक पाठक से अब कविता समझ आई जी बहुत निराली है। अच्छा चलता हूॅं‌ अगली समीक्षा पढूंगा तब पुनः चाय पीने उपस्थित होऊंगा।इधर पाठक गया उधर चाय हाजिर।

कविता बड़बड़ाई तुम्हारी आदत नहीं सुधरने वाली एक बार यूं क्यों नहीं कह देते कि मेरे लिए दो चाय लाया करो एक चाय से पेट नहीं भरता।
मैं बाल्टी भरकर इकठ्ठा बना दूंगी। कितना अच्छा सिरियल आ रहा था कविता भी कभी समीक्षा थी।

©भुवनेश्वर चौरसिया 'भुनेश'

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