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चौरासी का दिसंबर - Prashant Lakhani (Sahitya Arpan)

कहानीसंस्मरण

चौरासी का दिसंबर

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चौरासी का दिसंबर

हमारे घर को बनते बनते चार साल हो चुके थे। पापा मम्मी दोनो ही अपनी कमाई में से कुछ हिस्सा घर बनाने में डालते थे। ऊपर से बैंक और रिश्तेदारों से कर्जा भी ले रखा था। अभी घर की फर्शी और चारों तरफ की बाउंड्री लगना बाकी थी। खिड़कियों में कांच भी नही थे। लेकिन पापा बताते हैं की हमारे किराए के मकान मालिक ने हमें घर खाली करवाने के लिए इतना परेशान किया हुआ था, सोचा कि इसी हालत में अपने घर में शिफ्ट हो जाते हैं।

इस तरह, ४ मार्च, १९८४ को हम अपने कोहेफिज़ा वाले नए घर में रहने को आ गए। उस वक्त गिनती के कुछ घर ही तैयार थे। हमारा सी सेक्टर में १६ नंबर का मकान था। चारों ओर चट्टाने ही दिखती थीं। कुछ नए घर बनना शुरू हुए थे। घर के सामने, एक छोटी नदी नुमा पानी का स्तोत्र था, जो कि बड़े तालाब से जाके मिलता था। वहां लोग मछली पकड़ने और पिकनिक मनाने आया करते थे। इसके ऊपर एक छोटी पुलिया भी बनी हुई थी, जिसको पार करके एक पहाड़ था। उसी पे बनी पगडंडी को चड़के, मैं ऊपर मुख्य रोड (भोपाल–इंदौर हाईवे) पर पहुंचता था, जहां स्कूल बस मुझे लेने आती थी।

धीरे धीरे घर का काम चलता रहा। किसी तरह गर्मियां और बारिश निकल गईं। खिड़कियों पर चद्दर बांध कर हम लू और पानी से बचते रहे। अब सर्दियां आने वाली थीं। नवंबर में जब सर्दी सहने लायक नही रही, तब खिड़कियों पर कांच लगाए गए। अब जाके थोड़ा घर जैसा आभास होने लगा था।

तीन दिसंबर की सुबह, हर रोज़ की तरह, मम्मी ने मुझे स्कूल के लिए तैयार किया। मैं पगडंडी चड़के हाईवे पे अपने बस स्टॉप पहुंचा। बस के आने का समय करीब पौने छः का था। उस सुबह की हवा कुछ अलग थी। रोड पर गाड़ियां भी बाकी दिनों से कम थीं। अभी पूरी तरह से उजाला नही हुआ था। थोड़ा गौर किया तो देखा कि कोई भी गाड़ी यां ट्रक, शहर के अंदर नहीं जा रहे, बल्कि सारे ट्रक, जो कि लोगों से भरे हुए थे, वे शहर के बाहर जा रहे थे। उन ट्रकों में सभी शांत थे, जैसे कि कोई मातम छाया हो। बात कुछ समझ नहीं आई। आज स्कूल बस को भी आने में देर हो गई थी। कुछ देर में उजाला हो गया और बीस मीटर दूर ही, एक दूसरे स्कूल के बच्चों का स्टॉप था, वहां भी बच्चे जमा होने लगे। ट्रकों का निकलना ज़ारी था। ऐसा लग रहा था जैसे सभी शहर छोड़ के जा रहे हैं। मुझे अपनी बस का इंतज़ार करते हुए करीब पैतालीस मिनट बीत चुके थे। तभी दूसरे स्टॉप से एक परिचित लड़का मेरे पास आया और बोला कि शायद आज बस ना आए। कारण पूछने पर वो बोला कि रात को शहर में कुछ दुर्घटना घटी है, जिसकी वजह से हो सकता है स्कूल को बंद रखा गया हो। पंद्रह मिनट और इंतज़ार करने के बाद, हम लोग अपने अपने घर वापस हो लिए।

घर पहुंचके पापा को, जो कि दुकान जाने के लिए शेव कर रहे थे, पूरी बात बताई। मेरा बड़ा भाई अभी सोके उठा ही था। उसके स्कूल जाने में अभी समय था। मम्मी और बहन कॉन्वेंट स्कूल जाते थे। कुछ ही देर में मेरी बहन, जिसका स्टॉप तालाब की तरफ था, वो भी लौट आई। पूछने पर उसने बताया की मम्मी अपनी स्कूल की सह शिक्षिका और सहेली, मिसेज शेट्टी के घर गई हैं। उसने बताया कि जब वह और मम्मी स्टॉप पे जा रहे थे, तब सभी आस पास वाले उनको हैरत भरी निगाहों से देख रहे थे। स्टॉप पर मिसेज शेट्टी का चेहरा उतरा हुआ था और वे बहुत घबराई हुई थीं।

मम्मी जब घर लौटीं तो उन्होंने बताया कि रात को यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री से ज़हरीली गैस का रिसाव हुआ है जिससे काफी जानमाल के नुकसान की गुंजाइश है। मिस्टर शेट्टी, जो कि फैक्ट्री में तकनीकी विभाग में काम करते हैं, उनको वहीं पूछताछ के लिए रोक लिया गया है। शेट्टी मैडम ने सुबह से कुछ खाया भी नही था और वे बहुत चिंतित थीं। मम्मी ने उनको पहले नाश्ता बनाके खिलाया, उनकी थोड़ी साहस बांधी और फिर वे वापस घर आ गईं। फिर ना जाने उनके मन में क्या आया, पापा से बोलीं कि वे शहर में जाके वहां का मंज़र देखना चाहती हैं। और तो और, उन्होंने हम दोनो भाई बहन को भी साथ ले लिया। बोलीं की मैं बच्चों को जिंदगी का दूसरा पहलू भी दिखाना चाहती हूं।

एक ऑटो रिक्शा में, मैं, बहन और मम्मी पापा निकल पड़े। स्टेट बैंक के आगे नाकाबंदी थी, सो पापा ने ऑटो को स्टेट बैंक चौराहे से गोलघर की तरफ मुड़वा दिया। शाहजानाबाद तक तो सब ठीक ही लग रहा था। थोड़ा आगे बढ़ने पर हमको रोड पर पड़ी हुई भैंस की लाश दिखी। और फिर सड़क पर बिखरे हुए जूते चप्पल दिखे। समझ में आ गया कि ज़रूर रात में यहां भगदड़ मची होगी। रोड पे एंबुलेंस दौड़ रही थीं। गलियों में सन्नाटा छाया हुआ था। ऑटो में मम्मी ने बताया कि पिछली रात मैं और मेरी बहन ज़ोर ज़ोर से खांस रहे थे। जिसका कारण उनको अब समझ में आया। सैफिया कॉलेज के रास्ते, पीर गेट होते हुए हम इब्राहिमपुरा अपनी दुकान और पुराने घर पहुंचे। वहां पहले मम्मी ने हमारे आस पड़ोस वालों का हालचाल लिया। पता चला कि मोहल्ले में कुछ लोग हस्पताल में भरती हैं और किसी की जान भी गई है। हम ये सोच के अपनी खुशकिस्मती समझ रहे थे, कि हम कुछ ही महीने पहले अपने नए घर में शिफ्ट हो गए थे।

पापा अपने दुकानदार दोस्तों से मिलने चले गए जबकी मम्मी, मैं और बहन, ऑटो लेके वापस हो लिए। वापसी में हमें रास्ता खुला मिला। बीच में ही हमीदिया सरकारी हस्पताल पड़ता है। मम्मी ने ऑटो बाहर छोड़ दिया और हम पैदल ही अंदर, हस्पताल की ओर चल पड़े। जैसे जैसे हम आगे बढ़ते गए, हमने देखा कि हर थोड़ी देर में मरीजों और मृतकों से भरी एंबुलेंस, ट्रक, गाडियां आती जा रही थीं। अंदर गलियारे में तो काफी भीड़ थी। मम्मी की नज़र वहां सेवा दे रही सिस्टर्स और क्रिश्चियन नन्स पर पढ़ी। मम्मी ने उनको देखते ही पहचान लिया। वे उन्ही के स्कूल की थीं। मम्मी भी उनके साथ आंखों की दवाई और ब्रेड बाटने लगीं। हम भाई बहन कोने में खड़े ये देख रहे थे। इतने में एक लाशों से भरा ठेला वहां से पास हुआ। उसमें अधिकतर बच्चे थे। सभी की आंखें निकली हुई थीं और पेट फूले हुए थे। थोड़ी देर में मम्मी वापस आ गईं और हम आगे बढ़ गए। वापस रोड से होते हुए हम पीछे वाली बिल्डिंग की ओर चले। पूरी सड़क पे बाईं ओर सफेद चद्दर से ढकीं लाशें ही लाशें थीं। इतना भयानक दृश्य देखने के बाद भी हमें डर नही लग रहा था। मम्मी के एक हाथ को मैं और दूसरे को बहन पकड़े, आगे बढ़ते जा रहे थे।

रात तक ईदगाह हिल्स से रिश्तेदारों की खबर भी आ गई। सभी ठीक थे। सिर्फ थोड़ी आंखों की जलन बाकी थी। पापा के एक दोस्त, जिनका न्यू मार्केट में बिंब स्टूडियो था, उन्होंने रात भर जाग कर, शहर भर में तस्वीरें ली थीं। पापा हैरान थे कि उसको कुछ नही हुआ। कुछ दिनों तक अखबार में उन्ही की ली हुई तस्वीरें छपती रहीं। हमारी कॉलोनी भी, पहाड़ी से नीचे, और तालाब से लगे होने के कारण बच गई। जो लोग रात में हवा की दिशा में भागे, उनको अपनी जान गवानी पढ़ी, जबकि जो हवा के विपरीत दिशा में गए, वे बच गए। और जो कंबल ढक कर सो गए, वे सबसे भाग्यशाली थे।

१२ दिसंबर को मदर टेरेसा भोपाल आईं। उनका मम्मी के स्कूल में स्वागत किया गया। मम्मी ने उनका हाथ थाम के उसको चूमा और अपनी आंखों से लगा लिया। मदर टेरेसा ने उनको आशीर्वाद दिया। मदर टेरेसा स्कूल के बाद पीढ़ित इलाकों में गईं और मदद सामग्री का वितरण किया।

उस रात मम्मी और मदर टेरेसा की तस्वीर टीवी पर आई। ये देखने के कुछ ही मिनटों में बंबई से मौसी का फोन आया और उन्होंने मम्मी से बात की। मम्मी ने उनको कहा कि हमे नया जनम मिला है। इस वारदात के बाद स्कूल में जब भी मम्मी की छात्राएं कभी उनसे, उनकी जन्म की तारीख पूछतीं, तो मम्मी का जवाब रहता कि रोज़ ही मेरा जन्मदिन है।

सरकार ने घोषणा की कि १६ दिसंबर को यूनियन कार्बाइड की सफाई की जायेगी और टैंक में बची बाकी गैस को निकाला जाएगा। फैक्ट्री को चारों तरफ से जूट के गीले बोरों से ढांक दिया गया। हेलीकॉप्टर से पानी के छिड़काव की भी बात कही गई। लेकिन इस खबर ने फिर शहर में अफरातफरी मचा दी। लोग शहर छोड़ के भागने लगे। पापा और मैं, ईदगाह अपने रिश्तेदारों से मिलने गए। उन्होंने बंबई जाने का प्रोग्राम निर्धारित किया। लेकिन मम्मी पापा ने मिलकर भोपाल के ही उपनगर बैरागढ़ में, रिश्तेदारों के घर कुछ दिन बिताने का सोचा। बैरागढ़ में रहते हुए पापा निरंतर भोपाल का हालचाल पता कर रहे थे। फैक्ट्री की सफाई का काम तो सही सलामत हो गया, लेकिन पता चला कि शहर में चोरियां बहुत हो रही हैं। पापा का कहना है कि उन दिनों तालों की मांग इतनी बढ़ गई थी कि मार्केट से ताले ही गायब हो गए थे। पापा ने फिर कॉलोनी के कुछ लोगों से पता किया तो वहां भी यही हाल था। कुछ घरों में चोरियां हुई थीं। जल्दी ही हम लोग वापस अपने घर लौट गए।

अब पापा को ये चिंता सता रही थी कि इस त्रासदी की वजह से उनका फोटोग्राफी का काम ठप्प हो जायेगा। भला ऐसे माहौल में किसको फोटो खिंचवाने का शौक होगा? लेकिन भगवान ने हमको इस मुसीबत से भी बचा लिया। सरकार ने ऐलान किया कि गैस त्रासदी के पीड़ितों को मुहावजा दिया जायेगा, जिसके लिए सभी को फॉर्म पे अपना पासपोर्ट साइज़ फोटो लगाना था। फिर क्या था। दुकान पे फोटो खिंचाने वालों की भीड़ लग गई। धंधा अब पहले से बेहतर हो गया।

देखने पर तो ये त्रासदी थी, लेकिन सच्चाई ये है कि चौरासी की उस दिसंबर ने मेरा नज़रिया ही बदल दिया। हम जिंदा थे। हर सुबह एक आशा की नई किरण साथ लेके आती है। इसके लिए मैं सदा ही ऊपर वाले के प्रति कृतज्ञ रहूंगा।

लेखक: प्रशांत लखानी

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दादी की परी
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