कविताअतुकांत कविता
स्व रचित मौलिक कविता
बैशाख की संध्या
बैशाख की संध्या छत पर खड़ी मैं
दूर-दूर तलक दिखाई दे रहा
प्रकृति का मनोरम नजारा
जरा सी दूरी पर
खेत है कनक का
फैली पड़ी हैं जिसमें
स्वर्ण आभा लिए कनक पुलियां
ये देखो !
खेत - खेत में लगी हैं
बूढ़ी सरसों के खातों की ढेरियां
लिए श्याह श्याम वर्ण
दूर-दूर तलक दिखाई दे रहे
नीम , शमी , कीकर तरु
ऐसा लग रहा मानो धरा
हरा दुशाला ओढ़े है खड़ी
नजरों से थोड़ी दूरी पर खड़ा
इक पुराना फिरांस का पेड़
देखी हैं जिसने अनेकों पीढ़ियां
पास ही में है एक कुआं
जो पुरानिया कुआं के नाम से
रखता है अपनी पहचान
खेतों के बीच से
इक सड़क रही गुजर
हो रहा जिस पर आवागमन
दूर क्षितिज में सलेटी सिला - सा नभ
अस्ताचल सूर्य प्रतिबिंब से
हल्का पीत वर्ण लिए
अहा ! कितना सुंदर लग रहा
संध्या हो चली
परिंदों की कतार
अपने-अपने घर लौट चली
जो कह रही कि -
शाम ढल चुकी है
रात होने वाली है
तुम भी लौट जाओ
घर अपने , संध्या हो चली है।
उर्मिला यादव
मालड़ा
महेंद्रगढ़