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धारणा - sudhakar bhatt (Sahitya Arpan)

कविताअतुकांत कविता

धारणा

  • 39
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धारणा
मानव भी तेरी धारणा में बदलाव हो रहा
तुम समाज के अंग,तुमसे निर्माण हो रहा
खुद का विकास करके तुम आगे बढ़ चले
तुम पा चुके धन वैभव ,यातनाएं भूल गए
जैसे तैसे करके इंसान आगे बढ़ चला
गांव को छोड़कर ये शहर में बस रहा
है कोई गांव में गरीब तो उसका भी साथ दो
पैसों का रोप न दिखाओं उसके भी हाल लो
दे रहे समाज को एकता का ज्ञान,खुद दूर हो चले
ये कैसी शिक्षा पाएं, गरीब इंसानों से मुंह मोड़ रहे
सुधाकर भट्ट
BHU

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