कविताअतुकांत कविता
जिसे कभी रहा नहीं अपना ध्यान
सारी सुध बुध ना कोई भान
लौट आओ देखो छाने लगी बहार
अब और कितना करूं मैं इन्तजार
ये वन विपिन नदी पर्वत पहाड़
और शीतल बयार रही है तुझे पुकार
गई वो शरद अब है बसंत बहार
अब और कितना करूं मैं इन्तजार
परदेश में भी कोयल गीत सुनाती होगी
पपीहा पिहूँ पिहूँ गाता होगा
लताएं भी फूलों से लदे होगी
उन पर भौरां गुंजन करता होगा
यहां वियोगिनी हो रही है जार जार
अब और कितना करूं मैं इन्तजार
उपवन उपवन सुरभि छाई रहती है
बिन तुम्हारे यहां मुरझा आई रहती है
सखियां भी अब पागल कहती हैं
लिए नाम तेरा सताती रहती हैं
सुना है आंगन घर और द्वार
अब और कितना करूं मैं इन्तजार
लौट आओ देखो छाने लगी बहार
अब और कितना करूं मैं इन्तजार