कविताअतुकांत कवितालयबद्ध कवितागीत
मैं पुल होना चाहता हूँ
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मेरे और तुम्हारे बीच एक नदी बहती है
जिसे वर्षों से तुमने पार नहीं किया
उस नदी के पानी से बुझाते रहे अपनी प्यास
होते रहे स्वच्छ
पर नदी के उसी पानी से मेरी प्यास नहीं बुझती
मैं स्वच्छ नहीं हो पाता
नदी के उस पार जाकर तुमको मनाना चाहता हूँ
मैं पुल होना चाहता हूँ।
नदी विशाल है
पर उतना भी नहीं कि पार न किया जा सके
नदी के इस पार से उस पार जाना चाहता हूँ
मैं पुल होना चाहता हूँ।
उधर के विशाल भवनों को
इधर की झोपड़ियों से जोड़ना चाहता हूँ
मैं पुल होना चाहता हूँ।
देश के हर एक गांव में अलग देश -सा सरहद खड़ा है
देश में हर एक जन पर जाति- धर्म का आवरण चढ़ा है
कभी धर्म-भेद, कभी जातिभेद, कभी पैसों की हैं दूरियां
कुछ अनकही कुछ अनसुनी सी हैं सबकी मजबूरियां
मैं उन मजबूरियों को मिटाने की दवाई चाहता हूँ
मैं पुल होना चाहता हूँ।
न जाने क्यों तुम्हारे प्रेम पर नफ़रत का पर्दा चढ़ा है
जब तुम्हारा है नहीं तो फिर वो तुम पर क्यों पड़ा है
उस नफ़रत के पर्दे को हटाकर फिर जलाना चाहता हूँ
मैं पुल होना चाहता हूँ।
मुझे मालूम है बहुत देर तक मुझसे तुम न बच सकोगे
कड़ी धूप है उस राह में जिस राह में तुम चल रहे हो
तुम्हारी राह में मैं छांव बन कर साथ चलना चाहता हूँ
मैं पुल होना चाहता हूँ।
आनंद प्रवीण, पटना विश्वविद्यालय