कविताअतुकांत कविता
बेरोजगारी
---------------------
भीगती मसों और
फूलती नसों के दिनों में
घर से दूर शहर के कोने में
दस गुणा दस के पुराने
किसी छोटी सी कोठरी में
अपने मन मस्तिष्क में
चल रहे झंझावातों और
चक्रवातों से जंग करता
एक युवा, किसी छोटे-बड़े
सपने की जद्दोजहद में
उपाधियों और उम्मीदों के बोझ तले
नींद को तकिए के नीचे दबाये
सपनों को किताबों में सजाये
आंखों को लक्ष्य पर टिकाये
हीन भावनाओं से जकड़ा हुआ
कलम किताब और रोटी के खेल में
कहां है? क्या करता है? घर में ही है?
का जवाब देने में खामोश,थका-हारा
प्रतियोगिताओं की जटिल राहों में
भ्रष्टाचार, रिश्वत और आरक्षण
जैसे नुकीले कांटो और रोड़ों की
पीड़ा सहते हुए, फिर एक दिन
खत्म हो जाता हैं,आहिस्ता आहिस्ता
सपनों से सजा हुआ एक जीवन
दो जून के रोटी की तलाश में।