कविताअतुकांत कविताअन्य
*षोडश श्रृंगार*
यह अंजन मैंने सजा तो लिया है
क्या यह बुरी नजर से बचाएगा
या आंखों की खूबसूरती बढ़ाएगा ?
नहीं,... नहीं ...
इसमें सिमट गयीं हैं वो तमाम बुराइयां
जिनकी दिल में कोई जगह नहीं
बह जाएंगी अश्कों के साथ
नहीं चोटिल करेंगी तुम्हारे हृदय के जज़्बात
ये छन- छन करती चूड़ियां
क्या बढ़ाती हैं हाथों की शोभा
या सुहागिन का दर्ज़ा
नहीं ..…नहीं ....
इन चूड़ियों की छनक में तुमने दबा दी है
उन चंद सिक्कों की खनक
जो है असली झगड़े की जड़
अवांछित बातों का तीव्र स्वर
नहीं भेदेगा तुम्हारा कर्णद्वार
महकता हुआ गजरा क्या बढ़ाता है
मेरे केशों की शोभा
या है किसी भ्रमर के भ्रमण का आकर्षण
नहीं ....नहीं...
इसमें समेट ली है सड़े -गले विचारों की सड़न
एक दूसरे से होने वाली जलन
जो महकाकर सबका हृदय
बुझा देगा सबकी अगन....
माथे पर सजी बिंदिया लाल
है चमकता ,तपता सूरज लाल
जो है हर सुहागन का अमूल्य श्रंगार
जो कर देगी भस्म उन कुत्सित विचारों को
जो करेंगी खोखला
उसके स्वाभिमान की दीवारों को....
यह जो पहना हुआ है उसने चोला लाल
जिसमें जड़े हैं सलमा सितारे
जिन्हें पहन होती है वह निहाल
मांगती है दुआएं लंबी उम्र की
अपने प्यार और परिवार की
करती है व्रत करवा चौथ का
बस वो चाहती है दर्जा
अपने सम्मान और स्वाभिमान का....
पारूल हर्ष बंसल