कहानीप्रेरणादायक
एक बार की बात है कि कुछ साधू संत एक गांव में ठहरे हुए थे वो थोड़े समय एक गांव में रहते फिर आगे किसी गांव में अपना डेरा जमा लेते थे जो कुछ कोई उनको देता था उसी से अपना भरण पोषण करते थे कभी उनको बहुत अच्छा अच्छा भोजन मिलता तो कभी रूखा सूखा भोजन मिलता ,कभी भूखे पेट ही सोना पड़ता था इस तरह जब गुजर बसर करने में परेशानी होने लगी तो वे एक महात्मा के पास पहुंचे और अपनी परेशानी सुनाई । महात्मा ने उनकी बात बहुत ध्यान से सुनी और कहा तुम जिससे मगाने जाते हो बो भी तुम्हारे ही समान है । वो भी जैसे तैसे अपने परिवार का पाल पोषण करता है । यदि उसमे से कुछ अधिक होता है तो वह तुम्हे देता है। वो तुम्हारी इच्छा अनुसार कैसे दे सकता है । वो अपनी इच्छा और सामर्थ के अनुसार ही तुम्हे देता है।तुम स्वयं क्यों नहीं कमाते अपनी जीविकापार्जन स्वयं करना चाहिए । साधू बोले हम अपरिग्रही है ।हम कमा नही सकते हमे मिले हुए भोजन से ही अपना गुजर करना होता है ।महात्मा ने कहा जो अपरिग्रह है वो परिग्रह का दास होता है। परिग्राह होना अच्छा है,उसे किसी के सामने हाथ नही फैलाना पड़ता
दूसरो से लेने से अच्छा है की स्वयं कमाओ उससे कभी
मागना नही पड़ेगा और अपनी इच्छा अनुसार अपना भरण पोषण कर सकते हो ।दूसरो की इच्छा पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा ।
महात्मा सीख मान कर उन्होंने अपनी साधना ,उपासना के साथ आत्मनिर्भर जीवन जीने का प्रयास करने लगे ।
अपनी इच्छानुसार सुख सुविधा के साथ जीवन जीने लगे ।