कविताअन्यबाल कविता
अच्छा आज,
शिर्षक थोड़ा अटपटा है,
पर लेखनी का अलग मज़ा है,
जैसे वक़्त बीतता है,
वैसे ही लेखनी में कुछ नया सूझता है,
कभी कभी सब कुछ लिखने को जि करता है,
तो कभी चन्द लाईनों में दिल भर आता हैं,
थोड़ा बेचैन कर देता हैं वक़्त का खेल,
मन भी आंसू से भिग जाता है,
भारी लगने लगते हैं आंसू मन को,
तो मन ख़ुद कह देता है,
अच्छा आज क्या लिखा जाएं,
कुछ ऐसा जो खिड़की की सीट पर बैठे और,
स्टेशन पर उतरते यात्रियों के मन तक पहुंच जाएं,
अकेले बैठे उस उदास बच्चे की हसी बन जाएं,
पटरी पर किताबे बेचते व्यक्ति का मन हल्का कर जाएं,
अच्छा आज कुछ लिखा जाएं