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किन्नर - Meera Tewari (Sahitya Arpan)

कविताअतुकांत कविता

किन्नर

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किन्नर सुनते ही सिहर जाती हूँ,
न नर न नारी समझ नहीं पाती हूँ।
माँ ने रक्खा कोख में अपनी,
पीड़ा सही अनन्त॥
जब आया इस धरती पर,
ख़त्म हुए रस छन्द।
फेंका मुझको उस दलदल में,
छोर नहीं है जिसका।
घुट-घुट कर जीता मरता हूँ,
रोता हूँ हर पल।
संसार के हँसी ठट्ठे ने ,
छीना मेरा स्वाभिमान।
जीने की मजबूरी में खायीं बहुत गालियाँ,
उपहास उड़ाया स्वंय का बजा-बजा कर तालियाँ ॥
कोठी बँगले पर जाकर नाचूँ गाऊँ,
ताली पीट-पीट कर सबको रिझाऊँ।
आ लाल मैं ले लूँ तेरी बलैंया,
कभी न त्यागे तुझको तेरी मैया ।
अभिशप्त जीवन का मैं सच्चा प्रमाण,
बह उठता शिराओं में तभी मेरा प्रमाद।
ढूढँती नज़रे आज भी अपनी मैया,
देखें वह भी तो मेरा ता-ता थैय्या,
साहस से अपनाती मुझको ,
समाज से टकराती।
ममता का आँचल मेरे सिर पर,
रख लोरी मुझे सुनाती।
कर जाता जग में मैं भी कोई कमाल,
आँचल फैलाकर नहीं मचाता धमाल।
किन्नर की व्यथा कहाँ समझ पाओगे?
जब मिलोगे मुझसे ताली ही बजवाओगे।
सुना है हर दु:ख में साथ होते है राम,
उपकृत हूँ तुम्हारा राम कृपा दृष्टि बरसाने को।
हाथ जोड़ मैं करूँ प्रार्थना सारे जग से,
अपना लो हमको,काँटे बिन लो सभी हमारे मग से।
हो सकता है हममें से कोई निकले ,
भगत सिंह और सुभाष ।
जान लुटा दे भारत पर,
कटा कर अपना शीश।
सम्मान दे कर देखो,
मैं बना लूँ तुम सबको,
अपना ईश।


व्यथा

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