कवितागीत
शीर्षक : कोहरा
हर तरफ कोहरा ही कोहरा, चल रही सर्द हवाएं हैं l
छायी है कोहरे की चादर इस कदर,कि जैसे यह घटाएं हैं l
घुसकर बदन में सारे तन को कंपकपाए, गुस्ताख़ ये हवाएं है l
गर्मी की दरकार से,अलाव के इर्द-गिर्द लोग सिमट आए हैंl
सर्दी की ठीठुरन भीतर तक सबके जहन में समाए है l
अब यह ज़ालिम धुंध, यह कोहरा किसी को ना भाए है l
आवागमन की चाल मंद पड़े, दुर्घटनाएं यह कराए है l
सरक रही है गाड़ियां राहों में,रास्ता जाम कोहरा कराए है l
कड़ाके की सर्दी इतनी कि,रूह तक काँप जाए है l
ना कुछ सुझाई दे,ना कुछ दिखाई दे, कोहरा इस कदर छाए हैl
कोहरे में कदम - कदम पर लोग यहां अब रहे भरमाए है l
काम - काज ठप हो रहे सब,मुआ कोहरा बड़ा सताए है l
सर्दी इतनी बढ़ी है कि, लोगों पर शीत हावी हो जाए है l
लोगों की मुसीबत कर,बेदर्द कोहरा मंद -मंद मुस्काये है l
सर्दी और कोहरे ने मिलकर, शामत बेघरों के लाए हैं l
हाथ - पाँव कि क्या बात करें, इसने रूह तक कपकपाए है l
सूरज भी मद्धम पड़ गया ,यहाँ कोहरा इतना छाए है l
प्रदूषण और धुए का साथ पाकर, धुंध का दानव बढ़ आए हैं l
कोहरे की हल्की चादर में प्रेमी जोड़े कभी छिप जाए है l
इतनी मोटी कोहरे की चादर से अब साँस भर आए है l
लोकेश्वरी कश्यप
जिला मुंगेली, छत्तीसगढ़
20/12/21