कविताअतुकांत कविता
कवि नहीं तुम
लिखने बैठती हूँ
जब कोई प्रेम कविता
गढ़ती हूँ सौंदर्य विधान कोई
दिखाना चाहती हूँ
शब्द चमत्कार
सोखकर स्याही खड़ी हो जाती है
कलम
कदमताल करते –करते अचानक
ऐंठकर कर देते है हड़ताल
शब्द ,
कहते हैं
ऐ मानव !
तुम्हें कवि होना न आया
स्वयम को सौंपा था मैंने
उंगलियों में तुम्हारी
बनोगे आवाज ,बेजुबानों की
करोगे प्रतिकार
निरपराधों की पीड़ा पर
रचोगे शब्द ,पकाकर
अपनी संवेदना की आँच में
तोड़ोगे सनसनाती चुप्पी
अपनी कलम की नोक से
उधेड़ोगे बखिया भ्रष्टाचार की
वादों की जमीन पर
आश्वासनों की उगी खरपतवार को
काट फेंकोगे
उकेरोगे चित्र
भूख और गरीबी के
गर्भ और कूड़े दान में
फैंक दो गई
बेटियों के रक्षार्थ
ललकार बनेंगे शब्द चित्र तुम्हारे
मिटती संस्कृति, टूटती धरोहरों के लिए
जुटाओगे आवाज
मगर अफसोस !
तुम तो कैद होकर रह गए
अपनी महत्वाकांक्षाओं के
अंधेरे गुहर में।
डॉ लता अग्रवाल ‘तुलजा’