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किवाड़ - Prabha Issar (Sahitya Arpan)

कहानीव्यंग्य

किवाड़

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किवाड़
आतें जाते जमाने के साथ बदलते किवाड़
जो खुलते ही दुखों को साझा सा कर देते थे
अपनेपन का जो मीठा सा एहसास देते थे
बड़े बुजुर्गो का सिर पर हाथ होता था
आज कल तो ना वो किवाड़ रहें हैं
ना खटखटाते ही वो ज्ञिआसा सी रही है
किवाड़ बदलते ज़माने के साथ हमारे घरों के किवाड़
बड़े याद आते हैं गुज़रे ज़माने के किवाड़
अपनेपन के वो किवाड़
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