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शबनमी प्रकृति - Sarla Mehta (Sahitya Arpan)

कविताअतुकांत कविता

शबनमी प्रकृति

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*शबनमी प्रकृति*

प्रकृति की नन्हीं सी बेटी
श्रृंगार करती है धरा का
उषा की लाली के साथ
तृणतिनकों पे आ बैठती
पर्णों पर आ नृत्य करती
पंखुरियों पे बैठ थिरकती
यह नाजुक सी है सुहाती
नखराली नायिकाओं सी
पल में विलुप्त हो जाती
छुईमुई शर्मीली बाला सी
यह जलकनिका मिहिका
नैन- संजीवनी कहाती है
पर कैसे रौंध दें चरणों से
इस लखनवी नज़ाकत को
हाँ, प्रदूषण के थपेड़ों से
ओस होने लगी ओझल
ज्यों लुप्त होते नीलकंठ
या सृष्टि से कई चर अचर
बोलो कौन भिगोएगा हमें
सवेरे-सवेरे रवि से पहले
क्या निहार पाएंगे फ़िर से
तृणों पे बिखरे मोतियों को
प्रेम में विहल दीवानी के
बहते विमल दृगजल को
सरला मेहता
इन्दौर

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