कहानीलघुकथा
*आ अब लौट चले*
जूही व दर्पण एक माह के लिए यू एस से आए थे। बच्चे विभु व वैदेही ने ज़िद ही पकड़ ली थी, " "हमें दादा दादी से मिलना ही है, चाहे हमारे जन्मदिन मत मनाओ।
बच्चे भारत आकर बड़े खुश, वापस जाने के लिए उड़ानें भी बंद। बाहर जाने व अंट सँट खाने पर भी समझो कर्फ्यू ही लगा था। दादी रोज़ घर में उगी सब्जियाँ तरह तरह से बनाती। प्याज पकोड़े चीले समोसे आदि हरे धनिए की चटनी के साथ। कभी चूल्हे पर गर्म रोटियाँ तो कभी कंडे पर सोंधी सोंधी बाटियां। पुदीने की चटनी व केरी का पना बच्चे ही खत्म कर देते।
विभु आश्चर्य करता,"दादू हमारे वहाँ तो दाल से ऐसी खुशबू नहीं आती। "
वैदेही टोंकती, " बुद्धू , दादी हींग का तड़का लगाती है। और रोज़ ताज़ा बनाती है। "
विभु तो मचल ही जाता है, " पापा, आप यहीं नौकरी ढूंढ लो। ममा को भी यहाँ कोई काम मिल जाएगा। "
" हाँ, हमें तो यहीं रहना है। पेट दर्द तो दादी की अजवाइन गुड़ की चॉकलेट, ज़ुकाम तो मसाले वाली चाय। वहाँ तो मम्मा दवाइयां ही ठूसती रहती हैं।" वैदेही ने भी चोका लगाया।
दर्पण , जूही से कहता है, " देखा तुमने बच्चे बस दादा की बातें व दादी की कहानी सुनने में मगन रहते हैं। हमें डाँटना नहीं पड़ता कि टी वी पर फ़ालतू प्रोग्राम मत देखो।"
दादा दादी झूले पर बैठे प्रवासी पंछियों को देख सोच रहे हैं, " काश ! हमारे बच्चे हमेशा के लिए हमारे पास आ जाते। "
और अंदर कमरे में जूही व दर्पण बच्चों के ख़ातिर एक निर्णय ले चुके हैं।
सरला मेहता