कहानीलघुकथा
सायरा का जादुई थैला
मैं मंगोड़ी की थाल लिए जीना चढ़ने ही वाली थी कि पीछे से सायरा बानो बोली," लाओ आंटी मैं रख दूँगी धूप में,ऊपर ही जा रही हूँ।" यह उसका रोज का धंधा है। आते जाते भाभी दीदी भैया,,सबके काम हँसते हँसते निपटाना।सभी से आत्मीय सम्बंध बना लेना उसका स्वभाव ही है।
मैं बालकनी में बैठी सोचने लगी कि वह सभी घरों का अटाला,,,कपड़े पुरानी चीज़े आदि सहर्ष ले जाती है।जैसे ही वह ऊपरी मंजिल से उतरी मैं जिज्ञासावश पूछ बैठी, "सायरा ,हम तुम्हें इतने सूट,," वह बीच में ही बात काटते हुए बोली," आंटी,मैं तो बस कॉटन ही पहनती हूँ,आप रोज देखते हो। और मेरी सब सहेलियां रास्ता ही देखती है कि कब मैं पोटला लाऊँ।वे सब अपने हिसाब से बाँट लेती हैं।" और दूसरा सब सामान,,," मैने टोका। बातूनी सायरा तपाक से बोली," रब की दुआ से मेरे पास तो सब कुछ है।आप लोगों से मिले पंखे फ्रिज़ आदि ,जिसको जो चाहिए ले जाते हैं।"वह अपने चिर परिचित दाँत दिखाते बोली ।मैं बस उसके चेहरे के भावों को देखती रह गई,सच निःशब्द होगई।उसका भाषण जारी था, " अरे ! इसमें मेरा क्या जाता है, ख़ुदा सबका भला करे। और तो और आंटी खाने की चीज़े भी बाट देती हूँ।" कहते हुए अपना बड़ा सा थैला उठाए वह जीना उतर गई। और मज़बूर कर गई मुझे सोचने को कि इस अदनी सी सायरा का दायरा कितना विस्तृत है।
सरला मेहता
इंदौर
स्वरचित