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धीरे धीरे रे मना - Sarla Mehta (Sahitya Arpan)

कहानीप्रेरणादायक

धीरे धीरे रे मना

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विधा:-- कहानी
विषय:--शिक्षा
शीर्षक;--
*धीरे धीरे रे मना*

" अरे चुन्नू ! क्या सारा दिन खेलते रहोगे। पता है, छः माही सर पर आ रही है। पढ़ाई के लिए स्कूल ने छुट्टी रखी है और मैं भी तुम्हारे लिए घर पर हूँ। तिमाही का रिज़ल्ट देखकर पापा ने कितनी डाँट लगाई थी, याद है न। चलो जल्दी से पढ़ने बैठो। "
कामवाली सरयू अभी तक आई नहीं है। धैर्या पोहे धोकर प्याज़ काटने बैठ जाती है। आँखों से झरते पानी में मिले बहू के आँसू अम्मा को सोचने पर मजबूर कर देते हैं। उन्होने भी तीन तीन बच्चों को पाला है। दोनों बेटियाँ सुघढ़ता से गृहस्थी चलाते हुए नौकरी भी कर रही हैं। और बेटा भी अपने कर्तव्य निभा रहा है। बस तीनों को नियमित अभ्यास करने बिठा देती थी। ख़ुद तरकारी भाजी साफ़ करते हुए उनकी कॉपियाँ भी देखती जाती। फ़िर तीनों मस्ती में खेलते-कूदते रहते थे।
तभी बहू ने नाश्ते के लिए आवाज़ लगाई। सही मौका देख उसे टेबल पर हिदायतें देने लगी,
" बिटिया ! तेज़ आँच पर तो सब्जी जल ही जाती है। भरवाँ करेले को तो धीमी आँच पर सिजाना होता है न। ऐसे ही बच्चे के साथ भी इतनी जल्दबाज़ी व सख़्ती नहीं करना चाहिए। बच्चे को थोड़ा प्यार से समझाओ। शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य के लिए खेल-कूद भी आवश्यक हैं, यह तुम भली भाँति जानती हो। "
धैर्या का धीरज भी जवाब देने लगता है। आख़िर वह करे तो क्या करे। ख़ुद की नौकरी, घर की जिम्मेदारियाँ और सबसे अहम चुन्नू का भविष्य। उसके दिल का गुबार आँसू के रूप में बह निकला, " माँ ! आप ही बताओ मैं अकेली क्या क्या करूँ ? इनको ऑफिस व टी वी से फ़ुर्सत नहीं। "
इधर चुन्नू के पोहे ठंडे होते देख धैर्या बाहर जाकर चुन्नू को लेकर आती है।
पोहा देखकर चुन्नू मुँह बनाता है, " मम्मा आज तो आप मसाला डोसा बनाने वाली थी ना। मेरे दोस्त टिंकू के तो मजे हैं। जो खाना हो पार्सल मँगवा लेता है। उसकी डॉक्टर ममा को फुर्सत कहाँ ? "
धैर्या का चाँटा लगाने के लिए उठा हाथ माँ की हिदायतें याद आते ही रुक जाता है, " चुन्नू बेटा ! ज़िद नहीं करते। तुमको याद है न कि टिंकू महीने में कितनी बार बीमार पड़ता है।"
पोहा वैसे ही छोड़कर चीनू बिस्तर पर जाकर लिहाफ़ में दुबक जाता है।
धैर्या सोचती है कि अब रात का खाना ही होगा। रसोई में जाकर अभी अभी आई सरजू को समय के पसन्द की पंचमेल दाल व चुन्नू के लिए आलू पराठे बनाने का कहती है। फ़िर चुन्नू के पास लेट जाती है। दिमाग़ में चल रहा बवंडर तो झपकी भी नहीं लेने देता। फ़िर भी आँखें बंद करके थोड़ा सोने का प्रयास करती है।
समय भी आज ऑफिस से जल्दी ही आ गया। माँ इशारे से चुप रहने का कहकर चाय बनाकर लाती है, " बेटा ! तुझसे कुछ मशविरा करना था। "
समय लापरवाही से कहता है , " आज फ़िर चुन्नू ने कुछ किया क्या ?"
देख समय ! तुझे याद होगा, तुम तीनों भाई बहनों को पढ़ने के लिए मैं ही बिठाती थी । किन्तु तुम लोगों की किसी भी विषय की समस्या तुम्हारे पापा ही देखते थे। बहू भी नौकरी करती है। तुम्हें भी चुन्नू को वक़्त देना होगा। पिता का भी कुछ दायित्व बनता है बच्चे के लिए। अकेली माँ भी क्या क्या करे ? हर इंसान मेहनत अपने बच्चे के भविष्य के लिए लिए करता है। गणित व विज्ञान के तो तुम पंडित हो। बेटे को शुरू से आधारभूत फंडे व फार्मूले समझाओ। नींव मज़बूत होगी तो आगे का ढाँचा भी बेमिसाल होगा। इससे बच्चे की रुचियाँ आदि भी जान पाओगे। अरे ! टी वी छोड़ बाप बेटे देश विदेश की बातें करो। बाकी के विषय धैर्या देख लेगी। इसतरह उसे भी सहारा मिलेगा। "
" वो तो सब ठीक है माँ।
लेकिन उसकी ट्यूशन मेम भी तो आती है। फ़िर धैर्या भी है। घर के कामों के लिए नौकर जो हैं। "
" फ़िर भी बेटा... तुम्हें टी वी व मोबाइल का मोह छोड़ना होगा। एक बार गाड़ी पटरी पर आ गई तो ख़ुद ब ख़ुद दौड़ने लगेगी। "
धैर्या को किचन की ओर जाते हुए देखकर समय बात पलटता है, "हाँ माँ, मेरा प्रमोशन भी होने वाला है। "
माँ किचन में जाकर बहू को दिलासा देने का प्रयास करती है, " बेटी ! अब समय भी चीनू की पढ़ाई आदि देखेगा। तुम ख़ुश रहा करो। इस तरह मन ही मन कुढ़ना तुम्हारे स्वास्थ्य व समय के साथ तुम्हारे रिश्ते को भी प्रभावित करता है। बच्चे को मात्र किताबी कीड़ा ही नहीं बनाना है। उसे एक अच्छा इंसान भी बनाना है। ऐसे में घर में भी नकारात्मक ऊर्जा फैलती है। बच्चे, फूल की तरह ज़रा में कुम्हला जाते हैं। दही जमाते हैं तो बार बार हिलाते नहीं हैं। जमने पर भी फ़्रिज में सहेज कर रख देते हैं ताकि खट्टा ना हो पाए। बच्चे के मामले में क्या कहते हैं लव के साथ,,,।
" हाँ अम्मा लाफुल के साथ लवफुल भी होना होगा चुन्नू के लिए। आपकी यह बात भी सही है कि पढ़ाई के साथ बच्चे का खेलना भी ज़रूरी है। मेरी गैरमौजूदगी में आप चुन्नू को बड़े मजे से दाल चावल सब्जी चपाती कैसे खिला देती हैं ? "
धैर्या हँसते हुए चुन्नू को मनाने जाती है, " चलो चलो उठो अब, दादी के साथ पार्क नहीं जाना है क्या ? "
स्वरचित
अप्रकाशित
सरला मेहता
इंदौर
सरला मेहता
94, गणेशपुरी खजराना
इंदौर
शिक्षा:- स्नाकोत्तर अंग्रेजी व बी एड
जन्म दिनांक:-20 दिसंबर 1945
संप्रति:- सेवानिवृत शिक्षिका निजी विद्यालय
लेखन:-हिंदी अंग्रेजी व मालवी भाषाओं में गद्य पद्य की अधिकतर विधाएँ
प्रकाशित पुस्तकें:-
संजोई कहानियाँ
काव्य संग्रह ठूठ से झांकती कोपलें
सक्रियता:- वामा मंच, जलधारा समूह, अखण्ड सन्डे, साहित्य अर्पण आदि साहित्यिक समूहों की सक्रिय सदस्या हूँ।
आभासी पटलों पर भागीदारी करती हूँ।
सरला मेहता

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दादी की परी
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