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दिव्य तरंगें - Sarla Mehta (Sahitya Arpan)

कहानीलघुकथा

दिव्य तरंगें

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" दिव्य तरंगें "

" हे भगवान ! मुझे शक्ति दो, मातृभूमि के लिए मैं कुछ कर सकूँ। " दुश्मन को छकाते हुए ख़ुद घायल होकर कराहों में भी संकल्प दुहरा रहा है। कैसे करेगा पापा के अधूरे सपनों को पूरा ? " नितांत अकेला शौर्य, दूर दूर तक कोई नज़र नहीं आ रहा है। बस वह निष्प्राण सा पड़ा है,बर्फ़ीली पहाड़ियों में।
दूर उसके अपने घर में एक दीया जल रहा है। माँ के थरथराते शब्द गूँज रहे हैं , " हे प्रभु ! कब तक चलेगा यह। कब तक इन घर के चराग़ों की कुर्बानियाँ दिखाओगे । मेरी छोड़ो पर शीना के ख़ातिर ही सही,जो दुल्हन बनने के सपने संजोए बैठी है। "
बोलते हुए वह खो गई ध्यान में...सुदूर एक दिव्य प्रकाश पुंज से तेज़ लाल किरणें चारों तरफ़ फ़ैल रही है। बेटा शौर्य पूर्ण स्वस्थ प्रसन्न दिख रहा है। एक अज्ञात छत्रछाया में वह सुरक्षित है। बस इसी सकारात्मक चिंतन में वह सारे भ्रमों व वहमों से मुक्त हो गई।
आँख खुलते ही टी वी खोला," लापता मेज़र शौर्य अचेतन अवस्था में केम्प लाए गए। अब वे ख़तरे से बाहर हैं। "

सरला मेहता
इंदौर
स्वरचित

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दादी की परी
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