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अर्धांगिनी - Sarla Mehta (Sahitya Arpan)

कहानीलघुकथा

अर्धांगिनी

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शीर्षक:-- *अर्धांगिनी*

अनु अपनी दादी व माँ की तमाम नसीहतें लिए एक नए घर की सदस्या बन जाती है। पुराने रिश्तों को अक्षतों के साथ पीछे छोड़ नए नातों से स्वतः ही जुड़ जाती है।
पति सुशांत धीरे धीरे एहसास दिलाता जाता है, " देखो अनु, मेरे लिए माँ बाबा सब कुछ हैं। उन्हें अपना मानना, किसी भी बात से उन्हें ठेस ना पहुँचे। वैसे अब यह तुम्हारा घर है। और हाँ, थोड़ा पीहर से लगाव कम करो। दो नांवों की सवारी तुम्हारे लिए ही दुखदायी होगी। वहाँ तुम्हारे भैया भाभी हैं न। "
अनु अभी तक रोज ही माँ पापा से बात करती थी। सोचने लगी, " ये भी क्या बात हुई भला। सुशांत हर बात में स्वयं की पसन्द व सलाह को बेहतर मानता। ये क्या कवेलू मिट्टी से रंग पहन लेती हो ? देखो, इन घरेलू सेवकों को मुहँ मत लगाया करो। कभी कभी हमारी दीदी से बात कर लिया करो। अब वे तुम्हारी भी दीदी हैं। उसके अपने परिवार में ऐसा कभी नहीं देखा उसने। मामा मौसी को पापा अपना ही मानते हैं। सासू माँ अलग तानें मारने से नहीं चूकती।
आज माँ की तबीयत ठीक नहीं होने से भैया का फोन आया। लेकिन सुशांत का दो टूक ज़वाब मिला कि किसी छुट्टी वाले दिन चलेंगे। अब अनु का ज्वालामुखी फूट पड़ा," ये क्या बात हुई ? तुम्हीं बताओ कैसे भूल जाऊँ कि मैं एक बहू के साथ बेटी भी हूँ। शादी के सात वचनों में कर्तव्यों के साथ कुछ अधिकार भी गिनाते हैं। मैंने इस परिवार को दिल से अपनाया है। और मेरे सारे रिश्तें नातें तुम्हारे लिए कोई मायने नहीं रखते ? "
सुशांत नाराज़ी जताता है, " अनु, अपनी मर्यादा में रहो। "
अनु तुनक कर ज़वाब देती है, " आप भी अपनी मर्यादाएँ याद रखो। मैं अगर तुम्हारी अर्धांगिनी हूँ तो कम से कम आधे मुनाफ़े की भी हक़दार हूँ। "
सरला मेहता
इंदौर

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दादी की परी
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