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अनोखा बरगद - Sarla Mehta (Sahitya Arpan)

कविताअतुकांत कविता

अनोखा बरगद

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*अनोखा बरगद*

" बापू ! आपको भी शहर चलना होगा इस बार। " शांतनु ने सामान समेटते हुए ऐलान किया।
किंतु सोमनाथ इस बार भी तैयार नहीं हुए।
खेतों पर छाए जिस बरगद तले वे पले बढे, पिता से दादा बने, उसे वे कैसे छोड़ सकते हैं। बसंत काल में अपनी प्रियतमा संग इसी पेड़ के नीचे बने तखत पर जो घड़ियाँ बिताई, उन यादों को कैसे भुलादे ? अब तो यह बरगद भी तमाम लता बेलों से लद गया है जैसे उनका परिवार। जड़ें भी जमीन को छूने लगी है। यहीं वे अपनी प्राण प्यारी से बिछड़े भी थे।
भला हो संतो का जिसने बच्चों को जी जान से पाला पोसा व इस घर को सम्भाला। बेचारी संतो का भी अपना कोई नहीं था। वह घर की सदस्या की तरह ही रहने लगी। बेटी नैना ससुराल विदा हो गई और बेटा नौकरी पर।
सोमनाथ का पूरा दिन अपने पेड़ की छाँव में ही बीतता। गाँव वालों का दिन भर चौपाल लगा रहता। संतो काम काज निपटा कर अपनी कोठरी में पड़ी रहती।
इस बार नैना पीहर आई तो संतो कुछ बुझी बुझी सी लगी, " क्या बात है काकी ! तबियत तो ठीक है। "
" कुछ नहीं बिटिया ! तुम बच्चों के जाने के बाद से भैया जी को लेकर गाँव वाले तरह तरह की बातें करने लगे हैं। सोच रही हूँ...। "
नैना ने उसी वक़्त भाई से बात करके समाधान ढूंढ लिया। और सब गाँव वालों के सामने बापू व काकी को दूल्हा दुल्हन बना तखत पर बिठा दिया। आज बरगद खुशी के मारे झूमने लगा।
सरला मेहता
इंदौर

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