कहानीलघुकथा
शीर्षक:--*विरासत*
भानु बाबा ने झटपट चाय उबाली और चल पड़े काँधे पर कावड़ लिए नदी की ओर। भेरू टोके बिना नहीं रहा, " क्या बाबा! ना आगे ना पीछे, कोई नहीं नहीं हैं तुम्हारा।बुढ़ापे में भी आप नहीं मानोगे। अब तो आपने हर तरह के पेड़ लगाकर एक जंगल ही खड़ा कर दिया है। "
बाबा बोले, " बेटा दो दिन से बुखार में पड़ा था। नए पौधे लगाए हैं न, सूखने ही लगे होंगे। वैसे गाँव के कुछ बच्चे जरूर पहुँच गए होंगे पर उनको भी समझाना पड़ता है। "
भेरू ने कावड़ लेते हुए कहा, "चलो मैं भी आपका हाथ बटाता हूँ। निठल्ले बैठने से अच्छा है कुछ भला करूँ। "
बाबा आश्वस्त होकर बोले, " चलो कोई तो है जो मेरे बाद मेरे पेड़ पौधों की देखभाल करेगा। अरे मैं पंछियों के लिए दाने लेकर आता हूँ। रोज तीन चार किलो तो लग जाते हैं। वो तो मैं खलिहानों में बिखरा अनाज बटोर लाता हूँ। बेटा ये ही मेरा परिवार है। इस धरती माँ का मुझ पर कर्जा है, कैसे भी लौटाना होगा। "
भेरू अपने और दोस्तों को साथ लेकर बाबा के बच्चों की सेवा करने चल देता है। वहाँ आम जामुन पीपल नीबू आदि के पेड़ देख दोस्तों से कहता है, " अब बाबा का काम हम करेंगे। ये सारे फल फूल सब्जी बेचकर अपने नदी तालाबों की सफ़ाई करवाएँगे। "
सब दोस्त मिल कर बाबा की वहीं एक झोपड़ी तैयार कर लेते है।"
बाबा आकर देखते हैं,
" आज मैं अकेला नहीं, मेरे साथ दस हाथ और हैं। अब मुझे कोई चिंता नहीं। " तभी तोते गौरैया मोर आदि बाबा को दुलारने लगते हैं।
सरला मेहता
इंदौर
स्वरचित