कविताअतुकांत कविता
"हर जुबां पे मैं रहूंगी....."
*******************
हिन्दी का वजूद ही कहां है?
ये तो मृत:प्राय हो रही है,
अंग्रेजी के सामने जरा टीक कर तो दिखाये?
अंग्रेजी एक व हिन्दी दो पर है देखो,
कहा है बेचारी 'हिन्दी' ?
नहीं मानती हूं,
'हिन्दी' हूं मैं
न मीठी मेरे जैसी कोई,
हर दिल में मैं हूं सोई।
ना किसी भाषा से बैर रखती
हर भाषा में मैं ही छीपी।
अंतर्मन में सबके
शायद बाहर नहीं हूं।
कहते हैं,
वक्त अपना है काम करता,
न कोई अब भाषा पे मरता,
मोबाईल ,वोट्स एप ,नेट पर
अंग्रेजी का चीरहरण है छाया।
कई भाषाएं छूट रही है
बिन संवेदना नीरस हो रही है।
अभिमानी भाषाएं पीछे ही रही है
अब दुनिया हिन्दी में 'खोज' रही है।
मैं राष्ट्रभाषा 'हिन्दी '
जनसामान्य की भाषा
इन्सानों ,देवताओं की भाषा,
संवेदनाओं की भाषा
न कभी मरी हूं,
न कभी मरूंगी।
ना विकृत बनूंगी,
ना विकृति सहन करूंगी।
मैं हर जुबां पे हमेशा ही रहूंगी,
बेझिझक आगे बढूंगी।
---- चंद्रलता यादव--