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छाह खो गई - Sarla Mehta (Sahitya Arpan)

कहानीलघुकथा

छाह खो गई

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*छाँह खो गई*

चोंच में एक बड़ा सा पत्ता दबाए गौरैया उड़ते हुए बुदबुदाती है, " ये बादल यूँ ही घुमड़ेंगे या बरसेंगे भी। मेरे चारों चूजें प्यास से बेहाल हैं। ऊपर से सूरज देवता आग बरसा रहे हैं। "
गौरैया पत्ते से बच्चों को छाँह करने का प्रयास करती है, " पता नहीं इनके बापू पानी की तलाश कहाँ भटक रहे होंगे। ये जंगल माफियाओं ने पेड़ों को ठूठ बना कर अपनी जेबें भर ली हैं। विकास व धंधों के नाम पर भी जंगलों का सफाया कर दिया है। "
एक चूजा पहले ही बेहाल हो चुका है। अन्य चूजें भी प्यास के मारे ची ची कर रहे हैं।
तभी हांफता हुआ नर गौरैया आता है, " पानी का तो नामोनिशान नहीं है। हरियाली हो तो बादलों को लुभाए।"
मादा गौरैया बेचारी चूजों को सहलाकर पँखों से हवा करती है, " ओहो ! ये दूसरा वाला भी बेहोश हो रहा है। पत्ता भी सूख गया है। ज़रा कहीं से हरा पत्ता ही ले आओ , बच्चों के बापू। "
" देखता हूँ , कहीं मिल जाए। "
सरला मेहता
इंदौर
स्वरचित

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दादी की परी
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