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एहसास - Sarla Mehta (Sahitya Arpan)

कहानीलघुकथा

एहसास

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*एहसास*

बरसों की मुराद पूरी हुई। कई मिन्नतों के बाद घर में खुशियाँ आई हैं। दादा दादी फूले नहीं समा रहे हैं। दादी को बड़ी आस थी, " पोता हो या पोती, बस इस आँगन में किलकारी गूँजे। "
सब अपनी अपनी राय दे रहे हैं। बुआ को भतीजी के घुँघराले बाल कान्हा जैसे लग रहे हैं। चाचू को उसमें माधुरी की झलक दिख रही है। पापा व दादू तो उसकी मुस्कान पर फ़िदा हैं।
दादी सबको फ़टकार लगाती है, " अब बस भी करो अपनी बक़वास। बहु, चिकुटी काट इसे रुला तो। ये तो सब मेरी लाड़ो को नज़र लगाने पर तुले हैं। "
गुमसुम बैठी मुस्काती बहु की ओर दादा जी यकायक देखते हैं, " अरे भई, कोई बच्ची की माँ से भी पूछो।"
बहु मुस्काती है। वह शरमा कर कहती है, " इसे एक बार गोद में लेने दीजिए। मुझे इसका स्पर्श,,,इसका एहसास कैसा है, एक बार जानू तो। "
सरला मेहता
इंदौर
स्वरचित

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दादी की परी
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