लेखआलेख
*कान्हा का झूला*
विभिन्न तरह के झूले हमारी भारतीय संस्कृति के प्रतीक हैं। एक जमाने में हमारे यहाँ हर घर में झूले हुआ करते थे। किन्तु आजकल छोटे छोटे फ्लैट्स में झूलों का आनन्द नहीं रहा। हमारे घर में जन्माष्टमी के दिन पूजाघर में झूला सजाया जाता है। रात को बारह बजे कृष्ण जन्म के पश्चात हम अपने नन्हें से चाँदी के बालमुकुंद जी को झूला झुलाते हैं। साथ में गीत गाते हैं,,,झूला झूलो रे नन्दलाल, झुलावे तेरी मैया रे,,,।
एक बार यह सब देखकर मेरा पाँच वर्षीय पोता अबीर भी मचल गया, "मुझे भी कृष्ण जी जैसा झूला झुलाओ। "
हमारे छोटे से फ्लेट में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी। रस्सी भी उपलब्ध नहीं थी। छोटी सी गैलरी में जाने का दो फीट चोड़ा
लोहे का दरवाजा था। उसी पर एक गुलाबी नायलॉन की साड़ी से झोली बाँधी। एक रेशमी चादर से झूला बना कर उसमें छोटा कुशन रख दिया। और हमारे कन्हैया को झुलाया। चूँकि सकरी जगह थी अतः हाथ बांध कर बैठना पड़ता था।
इसके बाद जो भी छोटे बच्चे आते बड़े शौक से झूलते। हाँ, अबीर सबको याद दिलाना नहीं भूलता, "अरे हाथ अंदर रखो।"
इसके बाद हमने छोटा सा प्लास्टिक का झूला लगा दिया। बस इसी तरह बच्चों का दिल बहल जाता है। हमारे घर जो भी आते, वे मज़ाक करते, " वाह, आँटी आप भी खूब तरकीबें निकाल लेती हो, बच्चों के लिए।"
अब जब भी जन्माष्टमी आती है, वह झूला प्रकरण याद आ ही जाता है।
सरला मेहता
इंदौर
स्वरचित