कहानीलघुकथा
*अपने घर*
" दीनू काका ! दिन भर की दवाइयाँ रखी हैं। जब बाबा उठे, उन्हें गरम दूध के साथ दे देना। हाँ, धूप में ले जाकर पैरों की मालिश भी याद से कर देना। और कोई बात हो तो मुझे फोन करके बताना।"
डॉक्टर सनाया का नियम से आकर नीरज जी की सेवा करना,पड़ोसियों में चर्चा का खास मुद्दा बन गया है, " पता नहीं यह कौन है ? पत्नी मीना एक प्यारी सी बेटी छोड़ भगवान को प्यारी हो गई। "
" हाँ हाँ, नीरज जी तो,,, बेटी को शायद उसके ननिहाल छोड़ आए थे। उसके बाद किसी ने भी नहीं देखा उसे।"
" लेकिन बेटी थी बिल्कुल माँ जैसी ही सुंदर। "
सुध बुध खो बैठे लकवा ग्रस्त नीरज जी की सेवा टहल सेवक दीनू जी जान से करने लगा। कुछ ठीक होने पर वे दीनू से पूछते हैं, " किस डॉक्टर का इलाज चल रहा है और कौन आता है रोज मेरी देखभाल करने ? "
लो साब जी, "वो आ गई, आप ही पूछ लीजिए। "
सनाया आते ही पैर छूकर कहती है, " अरे आज तो आप बैठे हैं। अब कैसा लग रहा है आपको ? "
अचंभित हो नीरज ऊपर से नीचे तक निहारते हुए चौंक जाते हैं, " मीना तुम ! तुम तो,,,। "
सनाया बात काटते कहती है, " मैं मीना नहीं, आपकी व मीना की बेटी सनाया हूँ। माँ ने मेरी हक़ीक़त आपसे व दुनिया से छुपाकर रखी थी। किंतु माँ के जाने के बाद आप मेरी सच्चाई जानकर मुझे मेरी जगह छोड़ आए थे। भला हो उन लोगों का जिन्होंने मुझे बेटी सा पाल कर डॉक्टर बनाया। अब मैं चलती हूँ, अपना ध्यान रखिएगा। " आँसू बहाते नीरज जी बस इतना ही बोल पाते हैं, " रुक जाओ बेटी,कहाँ जा रही हो? मुझे माफ कर दो बाबा। "
सनाया खुश होकर सोचती है, " बाबा ने सच्चाई जानकर भी अब मुझे बेटी मान लिया है।"
वह इतना ही कह पाती है, "बाबा ! मैं अपने घर जा रही हूँ। "
सरला मेहता
इंदौर
स्वरचित